वीर सावरकर की पुण्यतिथि पर पढ़िए उनके अनमोल विचार
वीर सावरकर की पुण्यतिथि पर पढ़िए उनके अनमोल विचार
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26 फरवरी 1966 को इस दुनिया को अलविदा कहने वाले वीर सावरकर की आज पुण्यतिथि है। जी दरअसल वीर सावरकर भारतीय इतिहास में प्रथम ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिन पर अंतरराष्‍ट्रीय न्‍यायालय में मुकदमा चलाया गया और जिन्‍हें ब्रिटिश सरकार ने दो बार आजन्‍म कारावास की सजा दी। केवल इतना ही नहीं बल्कि उन्‍हें काला पानी की सजा मिली। उस दौरान जेल में रहते हुए उन्होंने नाखूनों, कीलों व कांटों को से कविताएं लिखी और उन्हें याद किया। अब आज हम आपको बताने जा रहे हैं उनके कुछ अनमोल विचार।

* महान लक्ष्य के लिए किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहीं जाता है।

* उन्हें शिवाजी को मनाने का अधिकार है, जो शिवाजी की तरह अपनी मातृभूमि को आजाद कराने के लिए लड़ने के लिए तैयार हैं।

* अपने देश की, राष्ट्र की, समाज की स्वतंत्रता- हेतु प्रभु से की गई मूक प्रार्थना भी सबसे बड़ी अहिंसा का द्योतक है।

* देश-हित के लिए अन्य त्यागों के साथ जन-प्रियता का त्याग करना सबसे बड़ा और ऊँचा आदर्श है, क्योंकि – “वर जनहित ध्येयं केवल न जनस्तुति” शास्त्रों में उपयुक्त ही कहा गया है।

* वर्तमान परिस्थिति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, इस तथ्य की चिंता किये बिना ही इतिहासलेखक को इतिहास लिखना चाहिए और समय की जानकारी को विशुद्ध और सत्य रूप में ही प्रस्तुत करना चाहिए।

* पतितों को ईश्वर के दर्शन उपलब्ध हों, क्योंकि ईश्वर पतित पावन जो है। यही तो हमारे शास्त्रों का सार है। भगवद दर्शन करने की अछूतों की माँग जिस व्यक्ति को बहुत बड़ी दिखाई देती है, वास्तव में वह व्यक्ति स्वयं अछूत है और पतित भी, भले ही उसे चारों वेद कंठस्थ क्यों न हों।

* हमारे देश और समाज के माथे पर एक कलंक है – अस्पृश्यता। हिन्दू समाज के, धर्म के, राष्ट्र के करोड़ों हिन्दू बन्धु इससे अभिशप्त हैं। जब तक हम ऐसे बनाए हुए हैं, तब तक हमारे शत्रु हमें परस्पर लड़वाकर, विभाजित करके सफल होते रहेंगे। इस घातक बुराई को हमें त्यागना ही होगा।

* ब्राह्मणों से चाण्डाल तक सारे के सारे, हिन्दू समाज की हड्डियों में प्रवेश कर, यह जाति का अहंकार उसे चूस रहा है और पूरा हिन्दू समाज इस जाति अहंकारगत द्वेष के कारण जाति कलह के यक्ष्मा की प्रबलता से जीर्ण शीर्ण हो गया है।
 
* कर्तव्य की निष्ठा संकटों को झेलने में, दुःख उठाने में और जीवनभर संघर्ष करने में ही समाविष्ट है। यश अपयश तो मात्र योगायोग की बातें हैं।

* अगर संसार को हिन्दू जाति का आदेश सुनना पड़े, ऐसी स्थिति उपस्थित होने पर, उनका वह आदेश गीता और गौतम बुद्ध के आदेशों से भिन्न नहीं होगा

* कष्ट ही तो वह चाक शक्ति है जो इंसान को कसौटी पर परखती है और उसे आगे बढ़ाती है।

* प्रतिशोध की भट्टी को तपाने के लिए विरोधों और अन्याय का ईंधन अपेक्षित है, तभी तो उसमें से सद्गुणों के कण चमकने लगेगें। इसका मुख्य कारण है कि प्रत्येक वस्तु अपने विरोधी तत्व से रगड खाकर ही स्फुलित हो उठती है।

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