लोकतांत्रिक देश में 'अर्कोट के नवाब' मोहम्मद अब्दुल अली को सरकारी मदद क्यों ? सुप्रीम कोर्ट का केंद्र और तमिलनाडु सरकार को नोटिस
लोकतांत्रिक देश में 'अर्कोट के नवाब' मोहम्मद अब्दुल अली को सरकारी मदद क्यों ? सुप्रीम कोर्ट का केंद्र और तमिलनाडु सरकार को नोटिस
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को केंद्र और तमिलनाडु सरकार के मुख्य सचिव से उस याचिका पर जवाब देने को कहा है जिसमें वंशानुगत उपाधि 'प्रिंस ऑफ आर्कोट' के चल रहे इस्तेमाल पर सवाल उठाया गया है।  यह भारत में उपाधियों और प्रिवी पर्स (राजाओं को मिलने वाली पेंशन और ग्रांट) के संवैधानिक उन्मूलन के बावजूद जारी है। यह नोटिस मौजूदा उपाधि धारक प्रिंस ऑफ आर्कोट नवाब मोहम्मद अब्दुल अली को भी भेजा गया है।

न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली 2020 में दायर एक याचिका पर नोटिस जारी किया है, जिसने इसे खारिज कर दिया था। एस कुमारवेलु द्वारा दायर मुकदमे में उनके वकील विष्णु शंकर जैन ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि ब्रिटिश शासन के दौरान, (अंग्रेज़ों का) समर्थन करने के बदले में कुछ व्यक्तियों या परिवारों को विशेष विशेषाधिकार, धन और उपाधियाँ दी गई थीं। इससे प्रिंस ऑफ आर्कोट की वंशानुगत उपाधि का निर्माण हुआ था। याचिकाकर्ता का कहना है कि भारत में संविधान लागू होने के बाद ऐसी विशेष स्थिति जारी नहीं रहनी चाहिए।

याचिका के अनुसार, भारत सरकार ने लेटर्स पेटेंट के प्रावधानों की गलत व्याख्या की और लेटर्स पेटेंट में निर्दिष्ट शर्तों का उल्लंघन करते हुए 'प्रिंस ऑफ आर्कोट' की उपाधि और वित्तीय सहायता देना जारी रखा। वादी ने अपनी याचिका में दावा किया कि 26 जनवरी, 1950 को भारत के संविधान के लागू होने के साथ वंशानुगत उपाधि शून्य हो गई थी। याचिकाकर्ता ने अनुच्छेद 18(1) पर भी प्रकाश डाला, जो स्पष्ट रूप से राज्य को उपाधियाँ प्रदान करने से रोकता है।

ऐसे टाइटल संविधान में समानता के सिद्धांतों का खंडन करते हैं:-

कुमारवेलु ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि ऐसे टाइटल या उपाधि सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में समानता के सिद्धांतों का खंडन करते हैं। उन्होंने 1969 में प्रिवी पर्स की समाप्ति के बाद संवैधानिक व्याख्या के बारे में चिंता व्यक्त की और एक भव्य इमारत सहित सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन की वैधता पर सवाल उठाया। बताया जाता है कि सरकार प्रिंस ऑफ आर्कोट को सालाना 2.74 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद देती है। 

इसके साथ ही जनहित याचिका में 1800 के वेल्लोर विद्रोह के दमन, और ब्रिटिश सरकार तथा आर्कोट के राजकुमार के बीच ऐतिहासिक गठबंधन का हवाला देते हुए ऐतिहासिक संदर्भ पर प्रकाश डाला गया था। याचिका में विशेष रूप से आर्कोट के राजकुमार को विशेषाधिकार, सम्मान और वित्तीय सहायता देने के औचित्य पर सवाल उठाया गया, विशेष रूप से यह देखते हुए कि अन्य शासकों ने स्वेच्छा से अपने राज्यों और विशेषाधिकारों को त्याग दिया था। याचिकाकर्ता का कहना है कि, देश में संविधान लागू होने के बाद जब कई राजाओं ने अपनी संपत्ति और विशेषाधिकार छोड़ दिए, तो प्रिंस ऑफ आर्कोट नवाब मोहम्मद अब्दुल अली को अब भी सरकारी मदद क्यों दी जाती है ?

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