मध्यप्रदेश के लोकप्रिय जननायक-टंट्या मामा
मध्यप्रदेश के लोकप्रिय जननायक-टंट्या मामा
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स्वतंत्र भारत के लिए भारतवासियों को बड़ा लंबा संघर्ष करना पड़ा है। स्वतंत्र भारत की इस संघर्ष यात्रा में भारत माता के कई बेटो और बेटियों ने अपने प्राणों का बलिदान कर शौर्य की एक अद्भुत गाथा लिखी  है। उनमें से कई लोगों के नाम भारत के इतिहास में  सुनहरे अक्षरों से लिखे गए हैं परंतु कुछ तमाम लोग ऐसे भी हैं, जिनके साथ इतिहास ने पर्याप्त रूप से न्याय नहीं किया है। टंट्या भील  इनमें से एक ही है। जिन्हें इतिहास ने एक अपेक्षित स्थान नहीं दिया।हालांकि  मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासी वर्गों के लोग टंट्या भील की पूजा करते हैं।  
 
आइए जानते हैं कौन हैं टंट्या भील 
 
टंट्या भील को टंट्या मामा के नाम से भी कहा जाता है परंतु उनका वास्तविक नाम तंतिया था जिन्हें प्यार से सब टंट्या मामा के नाम से ही बुलाया करते थे।  टंट्या मामा मालवा और निमाड़ अंचल के वर्ष 1878 और 1889 के  बीच ब्रिटिश भारत में एक बड़े सक्रिय विद्रोही और क्रांतिकारी रहे थे। टंट्या मामा स्वदेशी आदिवासी समुदाय के भील जनजाति के सदस्य थे। टंट्या मामा का जन्म 1840 में मध्य प्रांत के पूर्वी निमाड़ खंडवा की पंधाना तहसील के बडडा गांव में हुआ था। टंट्या मामा गुरिल्ला युद्ध मे योग्य थे। वह  एक महान निशानेबाज और पारंपरिक तीरंदाजी में भी निपुण थे। 'दावा' या फलिया उनका मुख्य हत्यार था।  वहीं उन्होंने बंदूक चलाना भी सीख लिया था। 

मध्य प्रदेश के जननायक टंट्या भील आजादी के आंदोलन के उन महानायको में से एक है, जिन्होंने आखरी सांस तक फिरंगी सत्ता से ईट से ईट बजाने की मुहिम जारी राखी । टंट्या मामा को आदिवासियों का रॉबिनहुड भी कहा जाता है, क्योंकि वह अंग्रेजों की छत्रछाया में फूलने फलने वाले जमाखोरों से लूटे गए माल को भूखे नंगे और शोषित आदिवासियों में बांट देते थे। टंट्या मामा ने 19वीं सदी में लगातार 15 सालों तक अंग्रेजो के खिलाफ अभियान चलाया था। अंग्रेज उन्हें डाकू की नजर से देखते थे। टंट्या मामा ने अंग्रेजों से बदला लेने के लिए आदिवासियों को संगठित किया। धीरे-धीरे टंट्या मामा अंग्रेजों की आंख का कांटा बनते चले गए। कहा जाता है कि टंट्या मामा इतने चलाक थे कि अंग्रेजों को उन्हें पकड़ने में करीब 7 साल लग गए उन्हें वर्ष 1888-1889 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था। 

टंट्या मामा की  गिरफ्तारी की खबर न्यूयॉर्क टाइम्स के 10 नवंबर 1889 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इस समाचार में उन्हें भारत के रॉबिनहुड के रूप में प्रकाशित किया गया था। बताया जाता है कि टंट्या मामा मध्य प्रदेश के बड़वाह से लेकर बेतूल तक में कार्यरत रहे थे। राजद्रोह के मामले में उनकी पैरवी करने के लिए वकीलों ने फीस के रूप में एक पैसा तक नहीं लिया था।टंट्या  मामा इस कदर लोकप्रिय थे की जब उन्हे गिरफ्तार कर अदालत में पेश करने के लिए जबलपुर  ले जाया जा रहा था, तब उनकी एक झलक पाने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा था। बाद में टंट्या मामा को सख्त सुरक्षा में जबलपुर ले जाया गया। उन्हें भारी जंजीरों से जकड़ कर जबलपुर की जेल में रखा गया। जहां उन्हे ब्रिटिश अधिकारियों ने अमानवीय रूप से प्रताड़ित किया। उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए। सत्र न्यायालय जबलपुर में उन्हें 19 अक्टूबर1889 को फांसी की सजा सुनाई गई थी, फिर 4 दिसंबर 1889 को फांसी दे दी गई इस तरह टंट्या मामा की मृत्यु हो गई। तभी से हर साल मध्यप्रदेश में 4 दिसंबर को टंट्या भील बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

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