पूरी दुनिया कोरोना वायरस का दंश झेल रही है। कई जगह मौत का आंकड़ा हजारों में है। इसके साथ ही इन मौतों ने उत्तराखंड के उत्तरकाशी में बड़कोट के बुजुर्गों के जहन में 50 साल पहले की महामारी की याद ताजा कर दी। जुलाई, 1970 में बड़कोट में हैजा फैला था। महज छह सौ की आबादी वाले गांव में एक ही दिन में 39 लोगों की मौत हो गई थी। दहशत में लोग खुले में लाशों को छोड़ भाग गए थे। वहीं, खुद को जंगल में बनी छानियों (घास की झोपड़ी) में क्वारंटीन कर लिया था।
इसके साथ ही 88 वर्षीय जयपाल सिंह बताते हैं कि उनकी बहन की भी हैजे से मौत हुई थी। वहीं उनके पड़ोसी बहत्तर सिंह की पत्नी और दो बेटियां भी हैजे से काल के गाल में समा गई थीं।गांव में बहुत कम ऐसे घर थे, जो महामारी के पंजे से बच सके। इतना ही नहीं, अपने घर लौटते हुए बाहरी क्षेत्रों के छह कर्मचारियों की भी रास्ते में ही मौत हो गई थी। जयपाल सिंह के मुताबिक, उस वक्त संसाधनों की कमी थी। महामारी से बचने के लिए जंगलों में बनी छानियां ही ग्रामीणों का क्वारंटीन वार्ड बनी थीं।
आपकी जानकारी के लिए बता दें की हैजा फैलने के समय स्वास्थ्य विभाग की टीम के साथ काम करने वाले सेवानिवृत्त स्वास्थ्य कर्मी मोर सिंह बताते हैं कि हैजे से मरने वालों की लाशें बड़कोट में बने कुष्ठ निवारण केंद्र के भवन में रखी गई थीं। वहीं जब परिजन लाश लेने नहीं पहुंचे तो सफाईकर्मी अजमेरी के साथ अन्य सफाई कर्मियों ने लाशों को यमुना की ओर लुढ़का दिया।वहां नदी के किनारे लाशें सड़ती रहीं।इसके साथ ही जब आवारा कुत्ते इन लाशों को नोंचकर उनके अंगों को बड़कोट तक लाने लगे, तब डीएम ने बड़कोट निवासी फुल्ला नाथ को बंदूक का लाइसेंस देकर सारे कुत्तों को मारने का आदेश दिया। दो दिन में ही सारे कुत्ते फुल्ला की गोली का शिकार बन गए।
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