आखिर कब समझेंगे जल की महत्ता ?
आखिर कब समझेंगे जल की महत्ता ?
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आज 22 मार्च है . इस दिन को पूरी दुनिया 'विश्व जल दिवस' के रूप में मनाती है. मकसद यही है कि सब लोग पानी के मोल को समझें और बेवजह न बहाए. लेकिन 25 साल पहले शुरु की गई इस पहल से लगता है, हमने कोई सबक नहीं सीखा है.आज भी देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां भयंकर जल संकट है. पानी की इस किल्लत के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं. सामने खड़े संकट के बावजूद हमने इसे जमकर बर्बाद किया और करते जा रहे हैं. यदि ऐसा ही चलता रहा, तो पानी के लिए तीसरा विश्व युद्ध होने की जो बात कही जा रही है, वह कहीं सत्य न सिद्ध हो जाए .आखिर पानी का मोल तो प्यास लगने पर ही मालूम पड़ता है.

आपको बता दें कि जुलाई 2010 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित करके दुनिया के हर व्यक्ति को पानी का अधिकार दिया. हर व्यक्ति को अपनी और घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की सुलभता निश्चित करने के लिए प्रति व्यक्ति प्रति दिन के लिए 50 से 100 लीटर पानी का मानक तय किया गया.यह पानी साफ, स्वीकार्य और सस्ता होने की शर्त रखी गई. जिसकी कीमत परिवार की आय के तीन प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना तय किया गया. यही नहीं पानी के स्नोत की उपलब्धता एक हजार मीटर से अधिक दूरी पर नहीं होना भी तय किया गया. लेकिन हमारे यहां हालात इसके विपरीत हैं.

इस बार जल दिवस की थीम है नेचर फॉर वाटर यानी प्रकृति के लिए पानी.इस समस्या का ऐसा समाधान खोजना जो प्रकृति पर ही आधारित हो. इसके लिए हमें प्रकृति की शरण में ही जाना पड़ेगा.प्रकृति हमें जल कीआपूर्ति बारिश के साथ ही भूजल से देती है. जमीन में पानी का अकूत भंडार है. यह पानी का सर्वसुलभ और स्वच्छ स्रोत है.लेकिन जमीन से पानी निकालने की प्रक्रिया ने भूजल को खतरनाक स्तर तक जहरीला बना दिया है.पिछले पचास सालों में भूजल के इस्तेमाल में एक सौ पंद्रह गुना वृद्धि हुई है. देश के लगभग एक-तिहाई जिलों का भूगर्भ जल पीने लायक नहीं है.जहाँ दो सौ चौवन जिलों में पानी में लौह तत्त्व की मात्रा अधिक है, तो दो सौ चौबीस जिलों के जल में फ्लोराइड बहुत ज्यादा है. एक सौ बासठ जिलों में खारापन और चौंतीस जिलों में आर्सेनिक ने पानी को जहर बना दिया है.बारिश, झील व तालाब, नदियों और भूजल के बीच यांत्रिकी अंतर्संबंध है. दूषित पानी पीने के कारण देश के कई इलाकों में अपंगता, बहरापन, दांतों का खराब होना, त्वचा के रोग, पेट खराब होना जैसी बीमारियां बढ़ गई है.

भविष्य में और ज्यादा भयावह बनने वाले इस जल संकट को देखते हुए सरकार से लेकर आम जन तक सबकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी.इसके लिए हम ऑस्ट्रेलिया का अनुकरण कर सकते है. जहां ऑस्ट्रेलिया ने 1997 से 2009 के बीच सबसे ज्यादा सूखे के दौरान 43 लाख लोगों के शहर मेलबर्न में सिर्फ 25.6 फीसदी पानी शेष रहने पर, कुछ नीतियां लागू करके शहर ने पानी की जरूरत को 50 फीसदी घटा लिया था. इसके लिए उन्होंने हर क्षेत्र में एक जल प्रबंधक नियुक्त किया ,जो जल निकायों, शहरी एजेंसियों और जलाशयों के प्रबंधकों को पानी का किफायती उपयोग करने पर मजबूर करता था. सरकार द्वारा समुद्री पानी को मीठे पाने में बदलने का प्लांट लगने के बावजूद खेती और घरों में इस्तेमाल पानी को रिसाइकिल करने पर सरकार ने इतना जोर दिया, कि उस प्लांट के इस्तेमाल की जरूरत ही नहीं पड़ी. ऐसा हम भी कर सकते हैं, बशर्ते सब एकजुट होकर दृढ इच्छाशक्ति का परिचय दें.

दूसरी बात बारिश की बूंदों को सहेजने की है. हमारे यहां बारिश का अधिकांश पानी नदी -नालों में बहकर बर्बाद हो रहा है.हर मकान की छत का पानी सीधे ज़मीन में उतारने के लिए हार्वेस्टिंग सिस्टम का उतनी सख्ती से पालन नहीं हो रहा है, जितनी अपेक्षा की जा रही है. इसमें आम आदमी की उदासीनता भी कम दोषी नहीं है. यह काम केवल सरकार के भरोसे नहीं चलाया जा सकता है. हालाँकि जल पुरुष राजेंद्र सिंह अपने प्रयासों से जल को लेकर जन जागृति लाने की कोशिश कर रहे हैं , लेकिन फिर भी जल के प्रति जागृति का अभाव देखा जा रहा है. इसलिए आपदा के आहट के संकेत को समझते हुए हमें अभी से सम्भलना होगा, अन्यथा हमारे देश को भी कैपटाउन बनने से कोई नहीं रोक सकेगा.

यह भी देखें

जल संकट तीसरे विश्व युद्ध की कगार पर ले जायेगा

गहराते जल संकट पर संयुक्त राष्ट्र की चिंताजनक रिपोर्ट

 

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