सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूं ही रस्में...
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूं ही रस्में...
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नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके, याद कर लेना कभी हमको भूले भटके। आपके अज्वे - वदन होवे जुआ कट- कट के। सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूं ही रस्में, भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में।। जी हां, कुछ ऐसी ही जोशभरी पंक्तियां लिखा करते थे स्वाधीनता के नायक और क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल। काकोरी कांड से अंग्रेजों को हैरान करने वाले अशफाक उल्लाह खान, राजेंद्र लाहिड़ी और राम प्रसाद बिस्मिल का नाम आज भी आदर के साथ लिया जाता है। द हिंदुस्तान रिपब्लिकेशन एसोसिएशन के नाम से उन्होंने अपने क्रांतिकारी दल का गठन किया। दल ने पूरे उत्तर भारत में अपना विस्तार किया। इस क्रांतिकारी से अंग्रेज इस कदर खौफ खाए हुए थे कि इसे तीन दिनों तक फांसी के तख्ते पर लटकाये रखा।

उत्तरप्रदेश की गोरखपुर जिला जेल में पं. बिस्मिल ने अपने जीवन का अंतिम सफर तय किया। इन्होंने भारत माता के लिए हंसते - हंसते स्वयं को बलिदान कर दिया। पं. बिस्मिल ने शाहजहांपुर में 11 जून 1897 को जन्म लिया और 19 दिसंबर 1927 को उन्होंने हंसते - हंसते फांसी की बलिवेदी को स्वीकार किया। दरअसल लाहौर में 1916 में षड्यंत्र को लेकर वाद चला भाई परमानंद को फांसी दिए जाने से रामप्रसाद आहत हो गए। उन्होंने अंग्रजों के खिलाफ लड़ने की ठानी। जब वे मैट्रिक का अध्ययन कर रहे थे इसी दौरान वे पं. गेंदालाल दीक्षित के संपर्क में आए। मैनपुरी के षड्यंत्र में उनकी बहुत सहायता की गई। बिस्मिल द्वारा गेंदालाल को मुक्त करवाने के लिए एक योजना बनाई गई।

जिसके अंतर्गत उन्होंने 15 विद्यार्थियों सहित फिरंगी सरकार के कारकून का घर लूट लिया। बिस्मिल को कविताऐं लिखने का भी रूझान रहा। उन्होंने हिंदी की कई कविताऐं लिखीं और ऊर्दू साहित्य में भी शायरियों से अपना योगदान दिया। उन्होंने पर्चे छापकर पत्रकारिता भी की और अंग्रेजी राज के खिलाफ भारत की जनता को जागृत किया।

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