राजनीतिक गलियारों में आज - कल लालू नीतीश की मित्रता चर्चा का विषय बनी हुई है. क्योंकि कल तक ये दोनों ही एक -दूसरे को बिहार के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते थे, और एक - दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे. मगर न जाने बिहार की राजनीतिक हवाओं ने ये कैसा रुख बदला है कि अब ये दोनों ही एक दूसरे को विकास का पर्याय बता रहें हैं.हालांकि बिहार की जनता भी इस गठबंधन के पीछे की विवशता से भली - भांति वाकिफ होगी. पिछले चुनाव में नीतीश की जीत का सबसे बड़ा कारण था लालू का जंगल राज. जिसे ख़त्म करने के स्वप्न दिखाकर नीतीश प्रचंड बहुमत के साथ बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए थे.
मुझे आज भी याद है कि पिछले चुनावों में बिहार विधान सभा चुनाव में नितीश अपनी रैलियों और भाषणों में लालू को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे. लेकिन हाल ही में भाजपा को मिली जबरदस्त सफलता ने नीतीश के होश उड़ा दिए है और कभी सिद्धांतो से समझौता न करने की बात का ढोल पीटने वाले नीतीश ने आखिरकार सत्ता के लिए अपना रंग दिखा ही दिया.
नीतीश ने पिछले ही साल बिहार की जनता के साथ विश्वाशघात कर भाजपा से अपना 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया था. हालांकि कुछ लोग इसे लालू - नितीश की अंतिम पारी के रूप में भी देख रहे हैं. लालू हमेशा से ही मुद्दा विहीन परिवार वाद और मंडलवाद की राजनीति करते रहें हैं. और शायद आगे भी इसी तरह की राजनीति करना चाहते हैं.लेकिन भाजपा को एक के बाद एक मिलती सफलता ने मंडलवाद की राजनीति पर रोक लगा दी है.
लालू पर अक्सर ही जातिगत राजनीति करने और जातिवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं. कुछ लोगों का तो ये तक कहना है की लालू सत्ता के लिए अनैतिक तरीकों को अपनाने से भी नहीं चूकेंगे और उनके कार्यकाल में बहुत सी फिरौतियों का लेनदेन तक उनके ही निवास पर हुआ था.
हालांकि बिहार की जनता भी सब कुछ देख ही रही है बस अब उन्हें इंतज़ार होगा तो सिर्फ चुनावों का जिस दिन वो अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दे सकेंगे. अब बस देखना ये है कि अगस्त - सितम्बर में मुख्य मंत्री की कुर्सी किसे स्वीकार करती है.
पं.सुदर्शन शर्मा