1962 के भारत-चीन युद्ध के समय कब्जे में ले लिए थे नेलांग-जादूंग गांव
1962 के भारत-चीन युद्ध के समय कब्जे में ले लिए थे नेलांग-जादूंग गांव
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चीन से तनातनी के बीच सीमा से लगे गांवों में देशभक्ति का उबाल है। हालांकि नेलांग-जादूंग गांव के ग्रामीणों के दिलों में बेदखली की टीस भी है। उन्हें आज तक मुआवजे का इंतजार है। सीमांत क्षेत्र के बुजुर्ग बताते हैं कि 1962 में 20 अक्तूबर से 21 नवंबर तक भारत-चीन युद्ध चला।अगले साल जब वे अपने गांव जाने लगे तो सरकार ने उन्हें रोक दिया। वहीं चीन से खतरा बताते हुए उनके नेलांग और जादूंग गांव सेना के सुपुर्द कर दिए गए। उनके अनुसार  नेलांग-जादूंग के ग्रामीण अपनी भेड़ बकरियों के साथ डुंडा, टिहरी, मसूरी, ऋषिकेश और देहरादून के परंपरागत चरागाह वाले डेरों में पलायन कर जाते थे।1962 में दीपावली से पहले सितंबर माह में इन गांवों से ग्रामीण अपने शीतकालीन डेरों की ओर लौटे थे। वहीं उस वक्त इस बॉर्डर की सुरक्षा पुलिस और स्पेशल टास्क फोर्स के भरोसे थी। बाद में यहां आईटीबीपी और सेना को तैनात कर दिया गया।

इसके साथ ही जाड भोटिया जनकल्याण समिति के अध्यक्ष सीमावर्ती नेलांग गांव निवासी 75 वर्षीय सेवकराम भंडारी, सीमांत भेड़ पालक संघ के अध्यक्ष 73 वर्षीय नारायण सिंह नेगी और हर्षिल के 73 वर्षीय नागेंद्र सिंह पुराने दिनों को याद करते हैं।वे बताते हैं कि 1962 में चीनी आक्रमण से पहले सीमा पर नेलांग और जादूंग दोनों गांव आबाद थे। यहां ग्रामीण कुट्टू, फाबरा, आलू और जौ की खेती करते थे।वहीं भेड़-बकरियां चराने के लिए तिब्बत की सीमा तक जाते थे। इसके साथ ही सुमला, मंडी आदि स्थानों पर उनके मिट्टी-पत्थर से बने कच्चे डेरे हुआ करते थे। सुमला, मंडी के साथ ही तिब्बत के व्यापारी हर्षिल के पास बगोरी तक आते थे। तिब्बती व्यापारी भेड़-बकरी, गाय, मूंगा, सोना, घी, ऊन, नमक आदि के बदले यहां से जौ, कुट्टू आदि अनाज एवं दालें, गुड़ आदि सामान ले जाते थे।

आपकी जानकारी के लिए बता दें की नेलांग और जादूंग गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि वर्ष 1962 में उत्तरकाशी के रास्ते बड़ी संख्या में तिब्बती शरणार्थियों ने भारत में प्रवेश किया था। इसके साथ ही टीसांचुकला, मुनिंगला, थागला-1 एवं थागला-2 दर्रों से होते हुए बड़ी संख्या में यह शरणार्थी नेलांग पहुंचे थे। इनके साथ लंबे समय तक व्यापार और संवाद के कारण स्थानीय लोगों को कोई दिक्कत नहीं हुई।नेलांग में चेक पोस्ट पर ठाकुर हुकम सिंह तैनात थे। वहीं उनकी पत्नी तिब्बत की थी और वह स्वयं भी तिब्बती भाषा जानते थे। वहीं उन्होंने स्थानीय प्रशासन को इसकी सूचना देकर इन शरणार्थियों को हर्षिल में रुकवाया। इसके बाद इन्हें कुछ दिनों तक मनेरी में ठहराने के बाद राजपुर (देहरादून) और धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) भेज दिया गया।

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