सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा, 50 में से 45 आरोपी मुस्लिम, नहीं मानते 'कोर्ट' का भी आदेश ! कौन दे रहा इतनी हिम्मत ?
सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा, 50 में से 45 आरोपी मुस्लिम, नहीं मानते 'कोर्ट' का भी आदेश ! कौन दे रहा इतनी हिम्मत ?
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रांची: भारत कोकिंग कॉल लिमिटेड (BCCL), झारखंड में स्थित भारत सरकार के स्वामित्व वाली एक सरकारी कंपनी है। यह कंपनी एकीकृत इस्पात क्षेत्र की 50% कोकिंग कोयले की आवश्यकता को पूरा करती है। इसकी स्थापना जनवरी 1972 में की गई थी और यह आज पूरे देश में 36 कोयला खदानों का प्रबंधन करती है। इन खदानों को 13 अलग-अलग क्षेत्रों में चिन्हित कर वर्गीकृत किया गया है। इन्ही क्षेत्रों में से एक सिजुआ क्षेत्र (मोदीडीह कलियारी) भी है। लेकिन, इस क्षेत्र में कंपनी को 'सार्वजनिक परिसर में अनधिकृत अतिचारियों की बेदखली अधिनियम' के तहत अदालत में मुकदमा दायर करना पड़ा है। 

इस मामले में आरोपियों की लिस्ट बहुत लंबी है। उनमे अधिकतर नाम इस प्रकार हैं-  मोहम्मद मुख्तार अंसारी, मोहम्मद मुख्तार अंसारी, मोहम्मद शमशाद अंसारी, सैबुन अंसारी, आफताब अंसारी, आफताब अंसारी, मोहम्मद ताहिर अंसारी, इरशाद आलम, नूरी खातून, मोहम्मद वाशिद अंसारी, मोहम्मद अलाउद्दीन अंसारी, मोहम्मद इमामुद्दीन अंसारी, रजिया खातून, नरगिस नाज, मोहम्मद तबरेज, गुलाम सरवर, मोहम्मद कलीम अंसारी....  स्पष्ट शब्दों में कहें तो, BCCL की सरकारी संपत्ति पर अवैध कब्ज़ा करने वालों में 90 फीसदी आरोपी मुस्लिम ही हैं। 

ये उन लोगों के नाम हैं, जिनके खिलाफ ये मुकदमा दायर किया गया है, उन्हें नोटिस भी भेजे गए कि, भैया सरकारी जमीन से कब्जा छोड़ दो, लेकिन उन्होंने कोई जवाब देने की जहमत ही नहीं उठाई। यही नहीं, कोर्ट के आदेश के बावजूद वे दी गई तारीखों पर पेश भी नहीं हुए। इन कब्जाधारियों के खिलाफ सिजुआ इलाके के रियल एस्टेट कोर्ट में मामला दायर किया गया है। अब BCCL ने अखबार में विज्ञापन जारी किया है। जिसमे चेतावनी दी गई है कि ''कोर्ट के रियल एस्टेट अधिकारी ने कहा है कि अगर वे अगली सुनवाई में पेश नहीं हुए, तो उनके खिलाफ आदेश पारित कर दिया जाएगा।'' 

बता दें कि, इन लोगों ने BCCL की जमीन और प्लॉट पर कब्जा कर रखा है, वे अदालत को भी घोलकर पी चुके हैं। वे कोर्ट के नोटिस का जवाब भी नहीं दे रहे हैं। BCCL ने अभी एक ही क्षेत्र के ऐसे 50 कब्जाधारियों की सूची जारी की है, जिनमें से 45 आरोपी मुस्लिम हैं, जो इस मामले में कुल आरोपियों की संख्या का 90 फीसदी है। लेकिन, ये गौर करने वाली बात है कि, कथित साजिशों के तहत सरकारी संपत्ति पर सामूहिक कब्जे से जुड़े मामलों में बार-बार सज्जाद, नसरुद्दीन और आमिर जैसे नाम सामने आने के पीछे क्या पैटर्न है? सरकारी संपत्ति को वापस प्राप्त करने के अदालती आदेशों तक की अनदेखी करने की शक्ति इनकी पास कहाँ से आती है? सरकारी संपत्ति पर बेधड़क कब्जा करने के बाद अदालत को भी कुछ न समझने के बावजूद ये लोग 'पीड़ित' कैसे बन जाते हैं?

ये व्यक्ति न केवल सरकारी संपत्ति पर अपना हक होने का दावा करते हैं, बल्कि कोर्ट के नोटिसों की भी अवहेलना कर अदालत का अपमान करते हैं। इनके पीछे ऐसी कौनसी शक्ति है, जो सरकार की जमीन पर कब्जा करने और कोर्ट का तिरस्कार करने के बावजूद इन्हे बचा ले जाएगी और उल्टा इन्हे ही पीड़ित साबित कर देगी ? इसका जवाब कुछ हद तक उत्तराखंड के हल्द्वानी में सामने आए इसी तरह के मामले से मिल सकता है। 

हल्द्वानी: अवैध कब्ज़ा खाली करने को कहा तो हुई हिंसा:-

अपनी महत्वपूर्ण वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियों की वजह से हल्द्वानी अक्सर उत्तराखंड के वित्तीय केंद्र के रूप में जाना जाता है, जहाँ कुशल परिवहन और माल ढुलाई सुविधाओं की दरकार हमेशा बनी रहती है, जिसके लिए भारतीय रेलवे भी लगातार प्रयास करती रहती है। लेकिन, हलद्वानी में रेलवे की जमीन पर ही बड़े पैमाने पर कब्ज़ा कर लिया गया है। यहां तक कि पुलिस भी सरकारी जमीन पर हुए इस  कब्जे को छुड़ाने में नाकाम रही, क्योंकि, जब भी पुलिस वहां पहुंची, भीड़ उन्हें घेरकर खड़ी हो जाती, फिर शुरू होता नारेबाजियों और धक्का-मुक्की का दौर, कई बार पथराव भी। हल्द्वानी में सरकारी जमीन पर हुए इस अतिक्रमण को देश भर के विभिन्न मुस्लिम नेताओं, वकीलों और पत्रकारों से भरपूर समर्थन मिला और कब्जाधारियों को ताकत।

इन कब्जाधारियों के नेटवर्क में इनके समर्थक पत्रकारों की भूमिका पर जरा गौर करें। जब कोर्ट ने जमीन खाली करने का आदेश दिया और पूरी लॉबी अवैध कब्जाधारियों के समर्थन में उतरने लगी, तो एक व्यक्ति हल्द्वानी पहुंचा, वो खुद को मीडियाकर्मी बता रहा था और सरकारी जमीन पर कब्ज़ा करने वाली भीड़ को समझा रहा था कि कैमरे के सामने क्या कहना है और कैसे कहना है, जिससे मीडिया के सामने वे ही 'पीड़ित' दिखें। व्यक्ति ने अवैध कब्जाधारियों की भीड़ को यह भी बताया था कि, जो बातचीत वो शूट कर रहा है, उसे 'द वायर' पर आरफा खानम शेरवानी के वीडियो शो में दिखाया जाएगा। वहीं, जब कोर्ट के आदेश के बाद अवैध रूप से कब्जे वाले क्षेत्र को खाली करने का समय आया, तो मौके पर लोगों का जमावड़ा हो गया। महिलाओं और बच्चों को धरना-प्रदर्शन में आगे कर दिया गया, ये दिखाने के लिए कि महिलाएं और बच्चे बेघर हो जाएंगे और यही इनका घर है। इसी योजना के तहत, भीड़ में भावुक व्यक्तियों को रोते हुए दिखाने वाले वीडियो रिकॉर्ड किए गए और सोशल मीडिया पर जमकर फैलाए गए।

इसके बाद वकीलों और गैर सरकारी संगठनों (NGO) का पूरा एक गिरोह है ही, जो फ़ौरन सरकारी जमीन पर इनके कब्जे को जायज ठहरने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया और वही हुआ जिसके लिए पूरी पटकथा लिखी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने अतिक्रमण खाली कराने के आदेश पर रोक लगा दी। यह भी गौर करें कि, झारखंड के BCCL में तो अतिक्रमणकारियों की संख्या 50 ही है (हालाँकि केवल एक क्षेत्र में), लेकिन हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर कब्जा जमकर बैठे लोगों की तादाद लगभग 50 हजार है। 

यहां भी मामले की शुरुआत BCCL की तरह ही हुई थी, अवैध कब्जाधारियों को कई नोटिस भेजे गए, लेकिन सामने से कोई जवाब नहीं दिया गया। अतिक्रमण का यह मुद्दा भारतीय रेलवे के विस्तार और विकास परियोजनाओं में बाधा डाल रहा है, जिससे उनकी प्रगति प्रभावित हो रही है। अतिक्रमण की जमीन पर करीब एक दर्जन मस्जिदें बना दी गई हैं, जिसके खिलाफ कब्जा-मुक्ति की कार्रवाई करना, खुद को 'नफरती' कहलाना हो सकता है। इसके आलावा भी इलाके में अतिक्रमण के कुल 4,365 मामले हैं। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने तमाम तथ्य और नोटिस देखने के बाद हलद्वानी के बनभूलपुरा क्षेत्र में स्थित गफूर बस्ती में इन अतिक्रमणों को हटाने का आदेश दिया था, लेकिन मीडिया ने माहौल बनाया और बड़े-बड़े वकील सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए, जहाँ से उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश को अस्थायी रूप से रोक दिया गया। 

यही नहीं, हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर कब्जा करने वाले ये लोग गोला नदी के किनारे अवैध खनन गतिविधियों में भी शामिल हैं, जो महत्वपूर्ण जोखिम पैदा करते हैं और रेलवे पटरियों और पुलों को नुकसान पहुंचाते हैं। यह गैरकानूनी खनन 1975 से बदस्तूर जारी है। हाल ही में जब यहाँ हिंसा हुई, तो पता चला कि इस क्षेत्र में हथियारों का भंडार जमा किया गया था और यहां तक कि मदरसे के छात्रों को भी इस संघर्ष में शामिल किया गया था। ये सभी रणनीतियाँ एक ही पैटर्न के अनुसार चलती प्रतीत होती हैं।

सरकारी संपत्ति पर कब्जा करने और कोर्ट का अपमान करने की ताकत कहाँ से आती है?

भारत का आम नागरिक, जो चौराहे पर खड़े पुलिस कांस्टेबल से भी डरता है, और ट्रैफिक नियम तोड़ने से पहले 100 बार सोचता है, वहां कुछ लोगों में इतनी ताकत कहाँ से आ जाती है कि, वो बेधड़क होकर सरकारी जमीन पर कब्जा करते हैं, फिर पुलिस टीम को घेर देते हैं, कोर्ट के नोटिस का जवाब देना उचित नहीं समझते, और कब्जा कि हुई जमीन को अपना ही होने का दावा करने लगते हैं। बता दें कि, यह मानसिकता सिर्फ धनबाद और हलद्वानी तक ही सीमित नहीं है; यह देश के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहा है। लेकिन, कहीं इन्हे वोट बैंक होने के कारण 'सरकार' का संरक्षण मिल जाता है, तो कहीं पत्रकारों-वकीलों के एक खास तबके द्वारा सुप्रीम कोर्ट तक जाकर इनके कब्जे को जायज ठहरा देता है और कब्जाधारियों को ही पीड़ित साबित कर देता है। 

BCCL ने 2017-18 में अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि कंपनी की कुल 526 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा है। इनमें से कुछ जमीन मुक्त कराई गई है। लेकिन, खदानों की सुरक्षा और लंबे समय तक सुचारु रूप से संचालन के लिए आसपास मौजूद अतिक्रमण या अवैध निर्माण को खाली कराना जरूरी है। लेकिन, धनबाद में ये काम अभी प्रारंभिक चरण में है, अभी उन्होंने लोअर कोर्ट के नोटिस को ही नज़रअंदाज़ किया है, जब बात हाई कोर्ट में जाएगी, वहां से आदेश जारी होगा, बड़ी संख्या में पुलिस कब्जा खाली कराने पहुंचेगी तो क्या होगा ?

पिछले तमाम पैटर्न को देखा जाए, तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी, अगर धनबाद में भी हल्द्वानी जैसी हिंसा और साथ में धरना-प्रदर्शन की शृंखला देखने को मिले। इसके बाद, कुछ नेता, पत्रकार, सुप्रीम कोर्ट के स्थगन आदेश की मांग करते हुए कब्जाधारियों को बचाने के लिए आगे आ सकते हैं। यही नहीं, अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई को भी 'मुस्लिमों का उत्पीड़न' साबित किया जा सकता है और अतिक्रमण का विरोध करने वालों को 'नफरती' घोषित किया जा सकता है। ''भारत में मुस्लिमों के साथ भेदभाव हो रहा है'', ऐसी जानकारी विदेशी मीडिया को भी भेजी जा सकती है। यानी कुल मिलाकर, अवैध अतिक्रमण को हटाना बहुत भारी पड़ सकता है और यदि सरकार ने अधिक जोर लगाया तो, पूरा नैरेटिव 'मुसलमान बनाम मोदी' का भी सेट किया जा सकता है। बहरहाल, ये देखने लायक होगा कि, इस मामले में आगे क्या होता है, क्या सरकारी कोयला कंपनी BCCL को अपनी जमीन वापस मिलेगी ? या कब्जाधारी ही पीड़ित बन जाएंगे ? 

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