आरटीआई के हाथ और सीबीआई के गिरेबान की दूरी
आरटीआई के हाथ और सीबीआई के गिरेबान की दूरी
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2005 में आरटीआई क़ानून आया जिसके तहत जनता को किसी भी तरह की जानकारी दिए जाने का प्रावधान बनाया गया, इस कानून के तहत सीबीआई से जुडी जानकारिया भी साँझा करने की बात कही गई मगर 2011 में संशोधन के बाद सीबीआई के साथ अन्य कई संस्थानों को आरटीआई से बाहर रखा गया. इस संशोधन के खिलाफ 2011 में ही दिल्ली हाई कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के वकील अजय अग्रवाल जो की 2014 में भाजपा के लिए रायबरेली से सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ चुनाव भी लड़ चुके हैं ने ने याचिका दायर की जिन्हे बोफ़ोर्स से संबंधित दस्तावेज़ हासिल करने थे, मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और इस पर केंद्र सरकार का कहना था कि ऐसे सभी मामलों की एक साथ सुनवाई हो. अजय अग्रवाल का दावा हैं कि तत्कालीन सरकार ने बोफ़ोर्स मामले के दस्तावेज़ों को छुपाये रखने के लिए सीबीआई को आरटीआई के दायरे से बाहर किया. अग्रवाल ने बीबीसी से कहा, "मैंने आरटीआई के ज़रिए बोफ़ोर्स से संबंधित काग़ज़ सीबीआई से मांगे थे. लेकिन सीबीआई ने ये दस्तावेज़ देने से इनकार कर दिया था जिसके बाद मैंने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) में अपील दायर की थी. सीआईसी ने मेरे पक्ष में फ़ैसला दिया लेकिन इसके बाद 9 जून 2011 को सरकार ने सीबीआई को आरटीआई क़ानून से बाहर कर दिया."

अग्रवाल कहते हैं, "बोफ़ोर्स मामला गांधी परिवार से जुड़ा है. तत्कालीन सरकार ने राजनीतिक फ़ैसला लेते हुए गांधी परिवार को बचाने के लिए ही सीबीआई को आरटीआई से बाहर किया था." पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी भी का भी मत कुछ इस तरह का ही है उनका कहना है कि "सीबीआई एक जांच एजेंसी है और भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी है. काफ़ी छानबीन से ये महसूस हो रहा था कि ये न ही सुरक्षा एजेंसी है और न ही ख़ुफ़िया एजेंसी है बल्कि ये एक जांच एजेंसी है." गांधी ने कहा कि "सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जो भी सरकार सत्ता में होती है सीबीआई उसकी गिरफ़्त में होती है."

इस पुरे मामले पर सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक एनके सिंह ने कहा कि "सीबीआई की सक्षम, स्वतंत्र और निष्पक्ष होने की छवि लाल बहादुर शास्त्री के दौर में थी. वो सीबीआई के सक्षम होने के पक्षधर थे. लेकिन अब हालात ऐसे नहीं हैं." एनके सिंह ने ये भी कहा कि यदि सीबीआई के अधिकारी चाहें तो वो सत्ताधारी दलों के दबाव को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर सकते हैं क्योंकि क़ानून सीबीआई को पर्याप्त शक्तियां देते हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सीबीआई की सभी बातों को गोपनीयता में रखना ख़तरनाक भी हो सकता है. आरटीआई के दायरे से बाहर होना सीबीआई के लिए भी ठीक नहीं हैं. जहां तक जांच में समझौता न हो उसको छोड़कर सीबीआई को भी आरटीआई के दायरे में होना चाहिए इससे पारदर्शिता ही बढ़ेगी."

इस मुद्दे पर आरटीआई कार्यकर्ता निखिल डे का मानना है कि कि सीबीआई जैसी जांच एजेंसी का आरटीआई से बाहर होना इस क़ानून को कुछ हद तक कमज़ोर ही करता है. निखिल डे के अनुसार "आरटीआई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक बेहद अहम हथियार है. देश के कई बड़े घोटालों के खुलासे आरटीआई से ही हुए हैं. ऐसे में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ भारत की सबसे प्रीमियर एजेंसी सीबीआई को तो आरटीआई के दायरे में होना ही चाहिए. डे ने कहा कि "जो सरकारें सीबीआई का इस्तेमाल राजनीति के लिए करना चाहती हैं वो कभी नहीं चाहेंगी की सीबीआई आरटीआई के दायरें में हो. सीबीआई का आरटीआई के दायरे से बाहर होना नेताओं के मन में जो जनता का डर है उसे भी दर्शाता है. इसमें पक्ष विपक्ष सबकी मिलीभगत है."

सीबीआई को आरटीआई के दायरे में लाया जाना चाहिए या नहीं इस पर अलग अलग मत है, मगर आरटीआई के दुरूपयोग, गोपनीयता की हद, सरकारी-गैर सरकारी और अन्य बड़ी संस्था जो देश के महत्वपूर्ण कार्यो में लगी हुई है की मनमानी पर रोक और उनसे जुडी जानकारी का आम होना कुछ ऐसे फेक्टर है जिन पर दोबारा सोचा जाना बेहद जरुरी है

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