नई दिल्ली: राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 12 दिसंबर को नागरिकता संशोधन बिल 2019 को अपनी स्वीकृति दे दी, जिसके बाद यह एक कानून बन गया है। इस कानून के विरोध में पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे हैं। पूर्वोत्तर के प्रदेशों के अलावा दिल्ली सहित कई शहरों में हिंसक प्रदर्शन देखने को मिले। इस कानून को लेकर कई किस्म की भ्रांतियां हैं। हमने इस कानून का अध्ययन करके इससे संबंधित सवालों का जवाब देने की कोशिश की है।
नागरिकता संशोधन कानून के मुताबिक, हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों के जो सदस्य 31 दिसंबर 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत में आए हैं और जिन्हें अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न झेला है, उन्हें गैरकानूनी प्रवासी नहीं माना जाएगा, बल्कि भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी। कानून के अनुसार, इन छह समुदायों के शरणार्थियों को पांच वर्ष तक भारत में रहने के बाद भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी। अभी तक यह समयसीमा 11 वर्ष की थी। कानून के अनुसार, ऐसे शरणार्थियों को गैर-कानून प्रवासी के रूप में पाए जाने पर लगाए गए मुकदमों से भी माफी दी जाएगी। विपक्षी पार्टियाों का कहना है कि यह कानून मुस्लिमों के साथ पक्षपात करता है, क्योंकि उन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया है। सरकार ने साफ़ किया है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश इस्लामिक रिपब्लिक हैं जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। इस कारण उन देशों में मुस्लिमों का धार्मिक उत्पीड़न होने का सवाल ही नहीं उठता।
मोदी सरकार का तर्क है कि 1947 में भारत-पाकिस्तान का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था। विभिन्न धर्म के अनुयायी बांग्लादेश और पाकिस्तान में रुक गए। इन दोनों देशों ने अपने राष्ट्र का धर्म इस्लाम घोषित कर दिया। इस कारण हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और इसाई समुदाय को धार्मिक प्रताड़ना झेलना पड़ा। इनमें से कई लोग शरण लेने के लिए भारत आ गए। उनके पास तो दस्जावेज भी नहीं हैं। धार्मिक प्रताड़ना के शिकार इन अल्पसंख्यकों को यदि भारत शरण नहीं देगा, तो ये कहां जाएंगे।
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