जानें सम्भाजी के जीवन के बारें में ख़ास बातें
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छत्रपति संभाजीराजे 9 साल कि उम्र में पुण्यश्लोक छत्रपती श्री छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा यात्रा में वे साथ गये थे. औरंगजेब के बंदीगृह से निकल, पुण्यश्लोक छत्रपती श्री छत्रपति शिवाजी महाराज के महाराष्ट्र वापस लौटने पर, मुगलों से समझौते के फलस्वरूप, संभाजीराजे मुगल सम्राट् द्वारा राजा के पद तथा पंचहजारी मंसब से विभूषित हुए. औरंगाबाद की मुगल छावनी में, मराठा सेना के साथ, उसकी नियुक्ति हुई (1668). युगप्रवर्तक राजा के पुत्र रहते उनको यह नौकरी मान्य नहीं थी. किन्तु हिन्दवी स्वराज्य स्थापना की शुरू के दिन होने के कारण और पिता पुण्यश्लोक छत्रपती श्री शिवाजी महाराज के आदेश के पालन हेतु केवल 9 साल के उम्र में ही इतना जिम्मेदारी का लेकिन अपमान जनक कार्य उन्होंने धीरज से किया. उन्होंने अपने उम्र के केवल 14 साल में उन्होंने बुद्धभुषण, नखशिख, नायिकाभेद तथा सातशातक यह तीन संस्कृत ग्रंथ लिखे थे. पुण्यश्लोक छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक और हिन्दु स्वराज्य के बाद स्थापित अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में से कुछ लोगों की राजकारण के वजह से यह संवेदनशील युवराज काफी क्षतिग्रस्त हुए थे. पराक्रमी होने के बावजूद उन्हें अनेक लड़ाईयोंसे दूर रखा गया. स्वभावत: संवेदनशील रहनेवाले संभाजी राजे उनके पिता छत्रपती शिवाजी महाराज जी के आज्ञा अनुसार मुग़लों को जा मिले ताकी वे उन्हे गुमराह कर सके.क्यूँ कि उसी समय मराठा सेना दक्षिण दिशा के दिग्विजय से लौटी थी और उन्हे फिर से जोश में आने के लिये समय चाहिये था. इसलीये मूघालो को गुमराह करणे के लिये पुण्यश्लोक छत्रपती श्री शिवाजी महाराज जी ने हि उन्हे भेज था वह एक राजतंत्र था.बाद में छत्रपती श्री शिवाजी महाराज जी ने हि उन्हे मुग़लों से मुक्त किया.मगर इस प्रयास में वो पत्नी रानी दुर्गाबाई और बहेन गोदावरी उनको अपने साथ लेन में असफल रहे.

पुण्यश्लोक छत्रपति शिवाजी श्री महाराज की मृत्यु (3 अप्रैल 1680) के बाद कुछ लोगों ने धर्मवीर छात्रपती श्री संभाजी महाराज के अनुज राजाराम को सिंहासनासीन करने का प्रयत्न किया. किन्तु सेनापति मोहिते जो कि वह राजाराम के सगे मामा होते हुए भी उन्होने यह कारस्थान नाकामयाब हुआ और 16 जनवरी 1681 को संभाजी महाराज का विधिवत्‌ राज्याभिषेक हुआ. इसी वर्ष औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर ने दक्षिण भाग कर धर्मवीर छात्रपती श्री संभाजी महाराज का आश्रय ग्रहण किया. अकेले मुग़ल, पोर्तुगीज, अंग्रेज़ तथा अन्य शत्रुओं के साथ लड़ने के साथ ही उन्हें अंतर्गत शत्रुओंसे भी लड़ना पड़ा. राजाराम को छत्रपति बनाने में असफल रहने वाले राजाराम के कुछ ब्राह्मण समर्थकोने औरंगजेब के पुत्र अकबर से राज्य पर आक्रमण कर के उसे मुग़ल साम्राज्य का अंकित बनाने की गुजारिश करने वाला पत्र लिखा. किन्तु धर्मवीर छत्रपति श्री संभाजी महाराज के पराक्रम से परिचित और उनका आश्रित होने के कारण अकबर ने वह पत्र छत्रपति संभाजी को भेज दिया. इस राजद्रोह से क्रोधित छत्रपति श्रीसंभाजी महाराज ने अपने सामंतो को मृत्युदंड दिया. तथापि उन में से एक बालाजी आवजी नामक सामंत की समाधी भी उन्होंने बनायीं जिनके माफ़ी का पत्र श्री छत्रपति संभाजी को उन सामंत के मृत्यु पश्चात मिला.

1683 में उसने पुर्तगालियों को पराजित किया. इसी समय वह किसी राजकीय कारण से संगमेश्वर में रहे थे. जिस दिन वो रायगड के लिए प्रस्थान करने वाले थे उसी दिन कुछ ग्रामस्थो ने अपनी समस्या उन्हें अर्जित करनी चाही. जिसके चलते छत्रपति संभाजी महाराज ने अपने साथ केवल 200 सैनिक रख के बाकि सेना को रायगड भेज दिया. उसी वक्त उनके एक फितूर गणोजी शिर्के जो कि उनकी पत्नी येसूबाई के भाई थे जिनको उन्होंने वतनदारी देने से इन्कार किया था, मुग़ल सरदार मुकरब खान के साथ गुप्त रास्ते से 5000 के फ़ौज के साथ वहां पहुंचे. यह वह रास्ता था जो सिर्फ मराठों को पता था. इसलिए संभाजी महाराज को कभी नहीं लगा था के शत्रु इस और से आ सकेगा. उन्होंने लड़ने का प्रयास किया किन्तु इतनी बड़ी फ़ौज के सामने 200 सैनिकों का प्रतिकार काम कर न पाया और अपने मित्र तथा एकमात्र सलाहकार कविकलश के साथ वह बंदी बना लिए गए (1 फरबरी, 1689).

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