धरती को रखें सदा नीरा, खेत लगे हरा भरा
धरती को रखें सदा नीरा, खेत लगे हरा भरा
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आसमान से बरसती तेज धूप, पसीने से लथपथ हर आदमी। और हर ओर से आती पानी, पानी की गूंज। इन दिनों तो कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। सच, गर्मी के मौसम में जब लोग पसीने से लथपथ हो जाऐ तो उन्हें पानी से ज़्यादा राहत कोई नहीं पहुंचा सकता। मुंह पर पानी के छींटे मार लीजिए और पंखा चलाकर कुछ देर खड़े हो जाईये। या कुछ देर कूलर आॅन कर उसके सामने बैठ जाईए सबकुछ कूल - कूल हो जाएगा। वाकई, पानी बेहद अनमोल है।

जब पानी की बात हो रही है तो हम शहरों के दायरे से बाहर निकलकर गांव की ओर चलते हैं। इस मौसम में अधिकांश खेत खाली पड़े हैं। कुछ किसानों ने तो अपने खेतों की मिट्टी पलट दी है और अब वे गांवों में होने वाले सामाजिक आयोजनों में व्यस्त हो गए हैं। इस बीच समय मिलते ही किसान धार्मिक यात्रा या भजन कीर्तन करने से नहीं चूकते। शायद इस बहाने भी किसान भगवान से अगले मौसम में पर्याप्त बारिश की कामना करते हैं। जिससे उनकी फसल अच्छी हो और उनका परिवार भरपेट रोटी पा सके। साथ ही अपनी जरूरतों को पूरा कर सके।

आखिर मां ही तो त्याग करती है

लाख मनाने के बाद भी भगवान खेतों को थोड़़ा ही भीगोता है। बाकि इंतजाम तो किसान को ही करना पड़ता है। मगर किसान आखिर पानी लाए तो लाए कहां से। बरसाती नदियां तो मौसमी चक्र में गर्मी शुरू होते होते ही सूखने लगती हैं। जिसके बाद किसान की सारी आस अपनी धरती मां से ही लग जाती है। जब धरती मां को हमने कुछ नहीं दिया तो वह हमें कैसे पानी देगी। हां, वह तो मां है, मां। सो किसान धरती का कलेजा चीरकर पानी तो निकाल लेता है लेकिन इसके लिए उसे 800 फीट से भी ज़्यादा नीचे जाना पड़ता है।

ट्यूबवेल बन रहे खिलौना

इतने में भी कई बार किसान के हिस्से में निराशा ही हाथ लगती है। अपनी फसलों को सींचने के लिए किसान को पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता। जिसकारण उसे कम पैदावार से संतोष करना पड़ता है। कुछ किसान तो धरती के सीने से अमृत उलीच- उलीचकर अपनी फसलों को जीवनदान दे देते हैं लेकिन उनका क्या जिनके खेतों का ट्यूबवेल भी अब दम तोड़ चुका है। अब तो वह ट्युबवेल महज मनोरंजन का साधन मात्र रह गया है। गांव के बच्चे ट्यूबवेल के पतले से पाईप में कंकरनुमा पत्थर डालते हैं और उसकी गहराई का अंदाज़ा लगाते हैं। लेकिन फसल सींचने में वह ट्यूबवेल किसी काम का नहीं रहता।

व्यर्थ बह जाता है जल

इस मामले में भारतीय किसान बेहद आलसी माने जाते हैं। सींचाई के लिए जल आपूर्तिं हेतु किसान सरकारों पर निर्भर रहते हैं तो कुछ भू जल से अपना काम चला लेते हैं। पानी की अनुपलब्धता से एक बार फिर राजनीति सक्रिय हो जाती है और हंगामे के बीच बारिश का मौसम आ जाता है फिर गांव, शहर, खेत, खलिहान का पानी नालियों के रास्ते बहकर निकल जाता है। बारिश का मौसम बीत जाने के बाद फिर जल की पर्याप्त उपलब्धता का संकट गहराने लगता है। इस गहन समस्या की ओर किसी का ध्यान नहीं है।

खेत का पानी हो खेत में

वाॅटर हार्वेस्टिंग की बात तो बड़े जोर - शोर से चली आ रही है लेकिन खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में जैसे आधारभूत सिद्धांत को लेकर कहीं भी प्रयास होते नजर नहीं आ रहे है, यदि किसान अपने खाली पड़े खेतों के कुछ हिस्से गांव की भलाई के लिए दे दे तो किसान की फसल को पर्याप्त पानी मिल सकता है। जी हां, खेतों के कुछ हिस्से में ग्रामीण जनभागीदारी से तालाब बनाकर बारिश का पानी उसमें सहेजते हैं तो खेतों को पर्याप्त पानी मिल सकती है।

तालाब बनाने से खेतों के आसपास के क्षेत्र मे भूजल बढ़ने से किसान को ही लाभ होगा और उन्हें अच्छी किस्म की फसल मिल सकेगी। गांवों में किसान जलसंग्रहण की आधुनिक और प्राचीनतम संरचनाऐं बनाकर जल को जमीन में संग्रहित करने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसे में पूरे गांव को सालभर पर्याप्त पानी मिल सकता है। शहरों में भी किसी उद्यान में जलसंग्रहण की संरचना बनाकर यहां एकत्रित हुए बारिश के पानी को भूमि में छोड़कर भूजल का स्तर बढ़ाने के प्रयासों की दरकार है।

हालांकि रूफ वाॅटर हार्वेस्टिंग को नवनिर्मित भवनों के लिए आवश्यक किया गया है लेकिन इस तरह के प्रयास हर मोहल्ले में हों तो भूजल की एक बड़ी मात्रा नालियों में व्यर्थ बहने से रोकी जा सकेगी। ऐसे में भूगर्भ का तापमान नियंत्रित रखने में, पोली होती जा रही धरती को आधार देने में और सबसे ज्यादा भू - जल का स्तर बढ़़ाने में मदद मिल सकेगी।

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