जहां डाल-डाल पर कुर्सी फसाये उल्लू करते है बसेरा, वो भारत देश है मेरा!
जहां डाल-डाल पर कुर्सी फसाये उल्लू करते है बसेरा, वो भारत देश है मेरा!
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JNU में लगे देशद्रोही नारे व उस पर अधिकांश जिम्मेदारो की ललकार JNU (जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी) में देशद्रोही नारे लगने के बाद रातों-रात देश/राष्ट्र का सिर्फ़ ज्ञान बाँटने वाले कुकुर्मुते की तरह निकल आये जो सड़ी-गली सोच व समय की लगातार बढ़ती टहनी से टूटे हुये सड़े-गले हिस्सो पर उगे थे. जहां जातिवाद ने खाद का काम करा तो लोकतंत्र पर राज "नीति" की लगातार बारिश ने दिन दुगुनी रात चौगुनी वर्द्धि करवा डाली, अब यह खरपतवार की तरह कई शिक्षण संस्थाओं को अपनी चपेट में ले रहे है. अधिकांश लोग जो नीचे से ऊपर तक जिम्मेदारी वाले पदो पर बैठे थे वो मीडिया / रैली / सभाओं के माध्यम से देश के नाम पर अपना चेहरा चमकाने के लिए आ गये पर चेहरे के पीछे दिमाग ने सबकुछ गुड़-गोबर कर डाला.

ये मुफ्त ज्ञान में देश / राष्ट्र का अर्थ समझा रहे थे परन्तु जो असंवैधानिक, अनैतिक, अमर्यादित व अन्यायिक नारे लगे वो सभी एक-एक करके सुना रहे थे. ये वही हुआ की कोई व्यक्ति "पोपट" के नाम से चिढता है तो आप घुम-घुम कर प्रत्येक व्यक्ति के पास ले जाये और घुमा-फिरा के 10-15 बार "पोपट" बोलकर उसे ऐसा नहीं कहने की अपनी प्रतिज्ञा दोहराये व सामने वाले को उसे "पोपट" न कहने का कहे. देश विरोधी नारे लगना इस बात का प्रतीक है कि वहा पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से वो शिक्षा दी जा रही थी जो पेड़ की उस डाली को विपरीत दिशा में कटवाती है जिस पर वो स्वयं बैठा है. इस समस्या का समाधान भी इसी दिशा में अविरल बहकर करा जा सकता था जो सिर्फ़ देश व संविधान के कारण JNU मे शिक्षण के लिए जो सुविधाये, रिआयत दी जा रही है उसे निश्चित समया अवधि के लिए बंद कर देते ताकि अनुभवी लोगो की सिख को न सुन ठोकर खाकर गिरके सिख्नने वाले भी समझ जाते.

इसमे यकिनन कई बेकसुर छात्र एवं छात्राये पिस जाते परन्तु वे सभी अप्रत्यक्ष रूप से दोषी है जिन्होंने अन्दर ही अन्दर ऐसी गतिविधियो के फेलव के समय अपने आख, नाक, कान बंद कर लिये. मीडिया ने सच दिखाने के नाम पर व तथाकथित वोट-बैंक से चिपके जिम्मेदारो के सार्थक निर्णय लेने की व्याकुलता में इन नारो को हजारो बार लगवा डाले. अपनी डिबेट में यह सिर्फ़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आकर लटक गये. यदि अधिकतर मीडिया (प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सोसिअल) ने कुर्सी पर बैठे व चिपके रहने वाले लोगो को ही ज्ञानी समझने की भूल ना करी होती तो अपने को दिन में बार-बार राष्ट्रीय बताने वाले, ईमानदार एवं सत्य निष्ठा से राष्ट्रीय वाला काम करके बता चुके होते. देशव्यापी नारों के अपराध में पकड़ा एक छात्र को जो छात्र-संघ का अध्यक्ष था बस यही राष्ट्रीय सोच एक पल में आसमान से जमीन पर आ गई क्यूँकि वो अब व्यक्तिवादी हो चुकी थी.

अब आप समझ चुके होंगे की लाखों में फीस लेने वाले व राजनैतिक पार्टियों से चिपके रहने वाले गिने-चुने वकील करते क्या है? यदि राष्ट्रीयद्रोह का मामला छात्र-संघ संगठन व उसके अध्यक्ष एवं अन्य पद पर लगाते तो दोषियो को न्याय के तराजू से कोइ नहीं बचा पाते. इससे कुर्सी पर बैठे रहने वाले सभी अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार हो जाते अन्यथा एक समया अवधि में न्यायिक तौर पर दोषी और भारत-राष्ट्र अजर-अमर हो जाता. इसलिए लोकतंत्र की प्रत्येक टहनी पर कुर्सी फसाये जो उल्लू बैठे है वो जनता को भी उल्लू बनाने के लिए एक या दो तीन चेहरों को आगे करके पीछे के अंधकार में छुप गए. अदालत ने इस घटनाक्रम के जो दोषी व्यक्ति आये उन्हे कहि शर्तो के आधार पर जमानत दी जिनमें युवा होना, शिक्षा ग्रहण कर रहा है अर्थात सामाजिक एवं सार्वजनिक रूप से अपरिपक्व है बातें प्रमुख थी, बस यही कई नेताओं की सोच का निचला स्तर व न्याय में उनके विश्वास को जग जाहिर कर दिया.

उन्होने उस व्यक्ति को आइकॉन बना अपने लिए वोट माँगने के लिए आगे कर डाला अर्थात यह साबित कर डाला की उनकी सोच उससे भी निम्न एवं घटिया दर्जे की है. इस प्रकरण में सीधे तौर पर संविधान की राष्ट्रीयता वाली मूल भावना को ही तहस-नहस कर डाला इसलिए सीधे तौर पर राष्ट्रपति महोदय को तत्काल कार्यवाही करनी चाहिए क्यूँकि वो सेना के प्रमुख होने के कारण राष्ट्र के लिए अपनी जान दाव पर लगने वालों को न्यायोचित नहीं ढहरा सकते परन्तु वे तो यह इंतज़ार करते रह गये की आम-जनता देश विरोधी जो नारे लगे वो उन्हे शब्द दर शब्द लिखकर दे. सुरक्षा घेरे से बाहर निकलना, लोगो से मिलना ऎसे छोटे मोटे व्यक्तिवादी वाले प्रोटोकॉल तोड़ने वाले यदि राष्ट्र व संविधान के लिए दो-चार प्रोटोकॉल तोड़ते तो शायद भविष्य में मरणोपरांत सैनिकों के रिश्तेदारों से उस समय शर्म से आँखें नहीं चुरानी पड़ती जब उन्हें वीरता और शौर्य पुरुस्कार देंगे.

इस तरह के मिलते जुलते प्रकरण अब और बढेंगे क्यूकी बिगड़ चुके सिस्टम में विरोध दर्ज कराने का कोइ मार्ग ही नहीं है जो एक अकेले इंसान के लिए भी सार्थक हो. इन सबसे बचने का विकसित सिस्टम का एक सांकेतिक प्रारूप हम प्रमाण के साथ वर्षों पहले अपने अविष्कार असली स्वतः टूटने वाली सिरिंज के साथ दे चुके है जिस पर राष्ट्रपति महोदय का अंतिम निर्णय पिछ्ले चार वर्षो से लंबित पड़ा है. यदि आत्मा, दिल, चरित्र की बात करे तो अब भी राष्ट्रपति महोदय कुछ नहीं करेंगे. जब उपाय होने के बावजूद एक मिनट में एक इंशान मर रहा है व कई नये नये घातक वायरस पनप रहे है तब भी कुछ नहीं कर रहे फिर यह तो जिंदगी जिने के तरिके से जुड़ा है.

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