क्यों न इस गुरु-पूर्णिमा के बाद, 'गुरुवाद' से मुक्त होकर, पहली मानसिक आज़ादी पायें ?
क्यों न इस गुरु-पूर्णिमा के बाद, 'गुरुवाद' से मुक्त होकर, पहली मानसिक आज़ादी पायें ?
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गुरु-पूर्णिमा के अवसर पर, लोग परंपरागत रूप से 'अपने मान लिए गए किसी खास' गुरु के प्रति श्रद्धा- भक्ति जताने के कुछ उपक्रम करते हैं | यह गुरुभक्ति का दिन बीत जाने पर, चलिए अब कुछ नयी सोच विकसित करने पर विचार करें | अधिकांश भारतीयों की यह एक बड़ी कमजोरी है कि हमारी मानसिकता अधिकांशतः संस्कारों से ही बनती है, तथा हम उनसे अलग ज्ञान एवं बेहतर विचारों के बारे में गंभीरता से सोचते भी नहीं हैं; इसलिए हम उनसे वंचित ही रह जाते हैं | तो आइये अब गहरा सोचने की आदत डालें, कुछ नया, सार्थक और बेहतर करें | सबसे पहले तो 'गुरु' शब्द का अर्थ और उससे जुडी हुई सही व गलत धारणाओं को पहचानें | इसके अर्थ में कोई भेद की बात नहीं है |

'गुरु यानि सिखाने वाला या शिक्षक'; यानि आप जो जानते हैं, सही जानते है; सभी शब्दकोशों के अनुसार भी इसका अधिमान्य अर्थ यही है | कई लोग इस शब्द की अलग व्याख्या करके, 'गुरु यह होता है, वह होता है' आदि कहकर, इसे अलग रंग देने की कोशिश करते हैं; वे सब गलत करते हैं | इसे ही ध्यान में रखकर विचार करें तो बचपन से लेकर जीवन-भर सैंकड़ो ही नहीं बल्कि हजारों लोग हमें कई तरह की बातें या हुनर सिखाते है (या यों ही बता देते हैं), तो क्या वे सभी हमारे गुरु होते हैं? जी हाँ ! क्यों नहीं | गुरुओं की संख्या पर कोई पाबन्दी तो है नहीं| यदि हम बहुत से लोगों से बहुत सी अच्छी बातें सीखे तो यह तो अच्छा ही है, इसमें बुराई ही क्या है | हम जीवनभर अधिक लोगों से, अधिक जरियों से जो कुछ अच्छा सीख सकेंगे, वही तो हमारी असली कमाई होगी | ..और ऐसा कोई कानून भी नहीं है और ईश्वरीय आदेश भी नहीं कि जिसे गुरु मानो, उसकी हर बात सही मानो या उसके अनुयायी भी बनो | हर व्यक्ति के पास अपना एक मस्तिष्क है, जिसमें उसका अपना विवेक है और अपने विवेक के अनुसार सत्य-असत्य का, सही-गलत का या सीखने योग्य - न सीखने योग्य का निर्णय करने के लिये वह स्वतंत्र है| यदि हम 'विवेक जितनी बड़ी शक्ति' का स्वतंत्र उपयोग न करें, तो फिर उसका होना न होना बराबर है | या तो हम यह कहें कि आपका विवेक ही आपका सर्वोत्तम गुरु है अर्थात अपने गुरु स्वयं बनें |

लेकिन, इससे बेहतर नजरिया और भी है| क्या है सही नजरिया ? यदि गुरुवाद से मुक्त होना है, तो बेहतर है कि हम कहे कि हम अपने लिए उपयोगी लगने वाली हर बात किसीसे भी सीखने के लिए तत्पर है | सिखाने वाला हर व्यक्ति गुरु होता है और सम्माननिय होता है| लेकिन हम कभी किसी एक व्यक्ति के न तो ‘अनुयायी’ (अर्थात किसी की चली गयी या बताई राह पर ही चलने वाले) बनेंगे न ‘भक्त’ (अर्थात श्रद्धावश अपने-आप का स्व-विवेक सहित पूर्ण समर्पण करने वाले); क्योंकि अनुयायी या भक्त बनने का मतलब है स्व-विवेक से सोचना-समझना बंद कर देना यानि मानसिक गुलाम बन जाना| कोई भी व्यक्ति या गुरु/ महागुरु कभी सम्पूर्ण व सर्वज्ञ नहीं होता| आजतक कभी कोई नहीं हुआ, न कभी होगा | इसलिए किसी भी अपूर्ण व्यक्तित्व के लिये, अपने आप को समर्पित करके, हम अपने विकास की संभावनाओं को और विवेक की स्वतंत्रता को सीमित क्यों करें ? इस नजरिये में गुरुओं के प्रति अनादर या अश्रद्धा नहीं है, यह तो बस अंध-श्रद्धा से बचने की बात है| आदर, श्रद्धा, विनम्रता सभी ऐसे गुण हैं, जो हमारी मानसिक स्वतंत्रता में बाधक नहीं है, बल्कि सहायक हैं| किन्तु, यदि इनकी अति हो जाये और ये अंध-श्रद्धा, पूर्ण-समर्पण या भक्ति बन जाये तो हम अनजाने में ही मानसिक गुलाम बन जाते हैं | किसी भी गुरु के प्रति अतिरेकपूर्ण श्रद्धा या भक्ति उत्पन्न करने के लिये होने वाली सभी क्रियाएँ, लोगों को मानसिक गुलाम बनाने वाली क्रियाएँ हैं | हमें अपने-आप को एक स्व-विवेक संपन्न, सजग व स्वतंत्र इंसान इंसान बनाये रखना है तो ऐसी सभी क्रियाओं और अतिवादी भावनाओं से बचना होगा; नहीं तो हम गुरुवाद के शिकार होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व खो देंगे| यह 'गुरुवाद' क्या है ? व्यक्तिवाद का ही एक खास स्वरुप है 'गुरुवाद' |

भारत में प्राचीनकाल से ही यह खूब प्रचलित रहा है; इसलिए हमारे पैतृक व धार्मिक (कु) संस्कारों के कारण यह आधुनिक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के युग में भी, नए रूपों में खूब फल-फूल रहा है | हमारे यहाँ परंपरागत रूप से कहा जाता रहा है कि हर व्यक्ति को कोई एक खास गुरु बनाना चाहिये, जो जीवन के हर कदम पर हमारा मार्गदर्शक होगा | जब आप इस व्यवस्था को स्वीकार कर लेते हो तो फिर जीवन को समझने के आपके विकल्प सीमित हो जाते हैं और इस व्यवस्था के अंतर्गत आप सब परम्पराओं का पालन करते हो, कथित गुरु के दर्शन, प्रवचन, भजन, पूजन, दान-दक्षिणा आदि प्रक्रियाओं में खुद को लगा देते हो तो आप उन खास गुरु के अनुयायी व भक्त बन ही जाते हो, यह जाने बिना कि ये मानसिक गुलामी के ही दूसरे नाम है | हो सकता है कि कोई खास गुरु वाकई आपको बहुत प्रभावित करता है, बहुत महान लगता है और आपको उनके प्रति खुद को समर्पित कर देना भी सही लगता है | लेकिन, महान होना सम्पूर्ण व सर्वज्ञ होना नहीं होता | इसलिए जो 'लगता है' वह मात्र प्रतीति ही है, सच नहीं है; सच हो ही नहीं सकता है; क्योंकि सृष्टि का पूरा सच तो आजतक कभी उद्घाटित ही नहीं हुआ| सीधी और खरी बात तो यह है कि किसी भी धार्मिक गुरु के पास, किसी भी धर्म-ग्रन्थ में या किसी भी समुदाय, संप्रदाय या कथित धर्म में सच नहीं हो सकता है |

विज्ञान सभी धर्मों के कई-कई झूठ उजागर कर चुका है और हर दिन नए झूठ खुल रहे हैं| विज्ञानं ही सर्वाधिक विश्वसनीय है, क्योंकि वह हमेशा प्रयोगों, प्रमाणों व तर्कों के आधार पर ही कोई बात कहता है| उसमें न व्यक्तिवाद होता हैं, न ग्रंथवाद, न परम्परावाद, न समुदाय/ सम्प्रदायवाद | वह प्रश्नों, आलोचनाओं, आपत्तियों के प्रति खुला है और जब कभी, किसी के द्वारा भी नए तथ्य सप्रमाण सामने लाये जाये, वह अपनी पुरानी मान्यताएं बदलने के लिये तत्पर रहता है | जबकि धार्मिक क्षेत्र में इसके विपरीत ही सारे अवगुण दिखाई देते हैं | इसलिए, इन फैली हुई बातों को कम-से कम एक निष्कर्ष तक शीघ्र लाने के लिये, इतना ही स्पष्ट कहता हूँ कि खुद पर ही कृपा करके धार्मिक मामलों में तो किसी भी हाल में किसी एक गुरु के अनुयायी या भक्त मत बनिये, मानसिक गुलामी से बचिये और स्व-विवेक को जागृत रखकर एक स्वतंत्र विवेक-वादी इंसान बनिये |

हरिप्रकाश 'विसंत'

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