बिहार में शराब पर पाबंदी सहभागिता भरा हो, राजनीतिक एजेंडा नहीं
बिहार में शराब पर पाबंदी सहभागिता भरा हो, राजनीतिक एजेंडा नहीं
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नई दिल्ली : बीते विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य में शराब को बढ़ावा देने के विरोधियों के आरोपों का सामना करने के बाद नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गुरुवार को अगले साल से राज्य में शराब बेचने पर पाबंदी की घोषणा की। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला एक राजनीतिक एजेंडा नहीं, बल्कि सहभागिता से भरा होना चाहिए। गुजरात, नागालैंड, मणिपुर (कुछ हिस्सों में) तथा केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप में शराब पर पाबंदी है, जबकि केरल में अगस्त 2014 से चरणबद्ध तरीके से इसे लागू किया जा रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले लोगों से वादा किया था कि वे शराब पर पाबंदी लगाएंगे। अब चुनाव जीतकर पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने के बाद शराब निषेध दिवस के दौरान प्रदेश की राजधानी में उन्होंने इसकी घोषणा की। उन्होंने कहा कि गरीब से गरीब व्यक्ति शराब का सेवन कर रहा है, जिससे उनका परिवार व बच्चों की शिक्षा प्रभावित हो रही है।

मुख्यमंत्री ने कहा, इसके कारण सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं को सहन करना पड़ रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि देश के विभिन्न राज्यों में शराब पर पाबंदी से कोई वांछित परिणाम सामने नहीं आ पाया, क्योंकि ये फैसले सहभागी नहीं थे और इसके कारण लोग शराब के अवैध निर्माण व तस्करी में लग गए। नशे के आदी लोगों की बेहतरी के लिए काम करने वाले नाडा इंडिया फाउंडेशन के अध्यक्ष सुनील वात्स्यायन ने बताया की शराब पर पाबंदी में लोगों की भागीदारी की जरूरत है। एक राजनीतिक एजेंडे के लिए यह किसी एक व्यक्ति का फैसला नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि शराब पर प्रतिबंध से राज्य को उन लोगों से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए, जो इसके आदी है, जिनके लिए चिकित्सकीय जरूरत होगी। वात्स्यायन ने कहा, दिखावे के प्रतिबंध से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन चरणबद्ध तरीके से शराब निषेध से राज्य को प्रतिबंध के प्रति प्रतिक्रिया को समझने में मदद मिलेगी।

वात्स्यायन ने कहा, शराब सेवन को केवल इस तरह नहीं देखना चाहिए कि इससे केवल सेवनकर्ता पर ही असर पड़ता है, बल्कि इससे महिलाएं व बच्चे भी प्रभावित होते हैं। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि शराब के सेवन का प्रभावित के बिगड़ते स्वभाव से ही संबंध नहीं है, बल्कि वह घरेलू हिंसा जैसी वारदात और यहां तक कि दुष्कर्म के प्रयास तक को अंजाम देता है। शराब व मादक पदार्थो पर रोक के लिए काम कर रहे पुणे के एक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) के लिए काम कर रहे अनिल अवाचत ने जोर देते हुए कहा कि शराब के सेवन के कारण घरेलू हिंसा की घटनाएं घटती हैं और वे शराब पर पाबंदी के पक्ष में हैं, क्योंकि इससे इसका सेवन करने वालों की संख्या में कमी आएगी।

गुजरात में शराब पर पाबंदी साल 1960 से ही अस्तित्व में है। भले ही गुजरात में शराब पर पाबंदी लग गई, लेकिन इसके कई प्रभाव भी सामने आए। साल 1989 में गुजरात के वड़ोदरा में अवैध रूप से बनाई गई शराब पीने से 257 लोग काल के गाल में समा गए। वहीं, साल 1971-1997 के बीच राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में जहरीली शराब के सेवन से 354 से अधिक लोगों की मौत हो गई। देश के कई हिस्सों में शराब पर पाबंदी की मांग उठती रही है। राजस्थान के पूर्व विधायक गुरचरण छाबड़ा (65) की शराब पर पाबंदी की मांग को लेकर एक महीने लंबे भूख हड़ताल के बाद इस महीने की शुरुआत में मौत हो गई।

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