कुछ ऐसा था स्वतंत्रता सेनानी का 'चंद्र शेखर आज़ाद' का शुरूआती जीवन
कुछ ऐसा था स्वतंत्रता सेनानी का 'चंद्र शेखर आज़ाद' का शुरूआती जीवन
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नई दिल्ली: देश की आजादी में अमूल्य योगदान देने वाले और इसके लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद ने 114 साल पहले आज ही के दिन जन्म लिया था। आजाद का जन्म भाँवरा गाँव में 23 जुलाई सन 1906 को हुआ था। उनके पिता पण्डित सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी थी। बचपन में भील बालकों के साथ मित्रता होने के कारण उन्होंने खूब धनुष बाण चलाना सीख लिया था। और निशानेबाजी में निपुणता हासिल की। आए दिन अंग्रेजों द्वारा देशवासियों पर बढ़ते जुल्मों ने आजाद का मन सशस्त्र क्रान्ति की ओर मोड़ दिया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था।आजाद मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल में शामिल हो गए। ये दल हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के नाम से जाना जाता था।

चन्द्रशेखर आजाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अत्यधिक लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व सरदार भगत सिंह के करीबी थे। सन 1922 में आजाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गए। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गए। इसके बाद सन 1927 में बिस्मिल के साथ 4 प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक किया और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऎसोसिएशन का गठन किया और भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स की हत्या करके लिया, और दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।

चन्द्रशेखर आज़ाद पूरे भारत में घूम–घूमकर क्रान्ति प्रयासों को गति देने में लगे हुए थे। लेकिन एक दिन किसी मुखबिर ने उनकी जानकारी पुलिस को दे दी कि चन्द्रशेखर आज़ाद 'अल्फ़्रेड पार्क' में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। वह 27 फ़रवरी, 1931 का दिन था। चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे। मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक 'नाटबाबर' ने आज़ाद को इलाहाबाद के अल्फ़्रेड पार्क में घेर लिया। "तुम कौन हो" कहने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना नाटबाबर ने अपनी गोली आज़ाद पर छोड़ दी। नाटबाबर की गोली चन्द्रशेखर आज़ाद की जाँघ में लगी। आज़ाद ने घिसटकर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी गोली दूसरे वृक्ष की ओट में छिपे हुए नाटबाबर के ऊपर दाग़ दी। आज़ाद का निशाना सही लगा और उनकी गोली ने नाटबाबर की कलाई पर लगी। 

बहुत देर तक आज़ाद ने जमकर अकेले ही मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को पहले ही भगा दिया था। पुलिस की कई गोलियाँ आज़ाद के शरीर में समा गईं थी, और उनकी माउज़र में केवल एक आख़िरी गोली बची थी। उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूँगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है।इसके बाद आज़ाद ने अपनी कनपटी से माउज़र की नली लगाकर उन्होंने आख़िरी गोली स्वयं पर ही चला दी।और ये क्रांति कारी हमेशा के लिए अमर हो गया।

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