रामचरितमानस की रचना के 450 वर्ष होंगे पूरे, प्रामाणिक संस्करण को किया जाएगा प्रकाशित
रामचरितमानस की रचना के 450 वर्ष होंगे पूरे, प्रामाणिक संस्करण को किया जाएगा प्रकाशित
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फरीदाबाद। 2024 में रामनवमी के दिन रामचरितमानस की रचना को 450 वर्ष पूरे होंगे। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस रचना की शुरुआत 1574 ई० अयोध्या के राम मंदिर में की थी। इस ऐतिहासिक अवसर को धूमधाम से मनाए जाने की तैयारियां शुरू कर दी गई है। इस वर्ष 2023 की रामनवमी से लेकर 2025 की रामनवमी तक यानी दो वर्षों तक 'रामायण शोध संस्थान' के द्वारा सभी उपलब्ध पाण्डुलिपियों का गहन अध्ययन किया जाएगा साथ ही सभी तुलसी साहित्य का प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित किया जायेगा।

सभी को जानकर ताज्जुब होगा कि,"ढोल गंवार सूद्र पसु नारी" ऐसी ही एक पाठ है जिस पर विवाद होता रहा है। सन् 1810 ई. में बिहार के उद्भट विद्वान् पं.सदल मिश्र द्वारा सम्पादित 'रामचरितमानस' छपा गया था, इसमें यह पाठ 'ढोल गंवार क्षुद्र पशु नारी' के रूप में छपा था। यहाँ सूद्र शब्द की जगह क्षुद्र शब्द का इस्तेमाल किया गया है।

1830 ई० में "हिन्दी एन्ड हिन्दुस्तानी सेलेक्सन्स' नाम से एक पुस्तक छपी थी जो की कोलकता के एसिएटिक लिथो कम्पनी ने छापी थी। इस पुस्तक में रामचरितमानस का पूरा सुन्दरकाण्ड छापा गया था। हिन्दी एन्ड हिन्दुस्तानी सेलेक्सन्स' में भी पाठ का नाम 'ढोल गंवार क्षुद्र नारी' ही है। इस पुस्तक के सम्पादक विलियम प्राइस, तारिणीचरण मिश्र, चतुर्भुज प्रेमसागर मित्र थे। 1874 को मुंबई के सखाराम भिकसेट खातू के छापेखाने से अयोध्या के पास स्थित नगवा गाँव के विद्वान् देस सिंह द्वारा सम्पादित 'तुलसीकृत रामायण' का प्रकाशन किया गया था। इस पुस्तक की विशेषता है कि, इसमें चित्र के साथ रामायण के प्रसंगो का उल्लेख किया गया है वहीं, इस पुस्तक में भी पाठ 'ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी' के नाम से ही है।

इस पाठ से मालुम होता है कि, भगवान राम अपने धनुष से बाण का निशाना साधे हुए हैं और सामने समुद्र करबद्ध मुद्रा में भगवान से विनंती कर रहे हैं। यहाँ 'ढोल गँवार' से अभिप्राय है कि, समुद्र भयभीत है। समुद्र भयभीत इसलिए है क्योकि वह राम को जाने के लिए राह नहीं दे रहा था और भगवान ने उसे सूखा देने की घोषणा कर दी थी। वहीं, संस्कृत में नार का अर्थ जल होता है, जिस तरह से गुण से गुणी बनता है उसी तरह नार से नारी यानी समुद्र बनता है।

1810, 1866, 1873, 1874, 1877, 1883 में प्रकाशित हुई पुस्तकों में पाठ 'ढोल गंवार क्षुद्र पशु नारी' था और माना गया है कि, 1880-1890 के बाद भूल से या फिर जानबूझकर क्षुद्र शब्द को सूद्र कर दिया गया वहीं, 1930 के दशक में प्रकाशित हुई पुस्तक घर-घर पहुँच जाने के बाद पाठ "ढोल गंवार सूद्र पशु नारी" ही प्रचलित हो गया। लेकिन 1877 ई. तक 'ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी' पाठ ही प्रामाणिक है। जिसके चलते गोस्वामी तुलसीदास पर किसी भी प्रकार का आरोप लगाना बेबुनियाद है।

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