जानिए क्यों बप्पा को लेना पड़ा था 'धूम्रवर्ण' अवतार?
जानिए क्यों बप्पा को लेना पड़ा था 'धूम्रवर्ण' अवतार?
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इन दिनों पूरे भारत में गणेश चतुर्थी के उत्सव की धूम है। ऐसे में अब तक आप सभी ने महागणपति के 8 अवतारों के विषय में जाना होगा और आज हम आपको आठवें अवतार के विषय में आपको बताने जा रहे हैं। जी दरअसल भगवान श्रीगणेश का 'धूम्रवर्ण' नामक अवतार अहंतासुर का नाश करने के लिए लिया। कहा जाता है वाहन की श्रेणी में गणपति जी ने कई बार मूषक को अपना वाहन चुना और इस अवतार में भी उन्होंने मूषक को ही चुना है। आज हम आपको बताते हैं धूम्रवर्ण अवतार की कथा।

पौराणिक कथा- कहा जाता है पितामह ब्रह्मा ने सूर्य को कर्माध्यक्ष पद दिया। वहीं राज्य पद प्राप्त कर सूर्यदेव के मन में अहङ्कार हो गया, उसी समय उनको छींक आ गई और उससे अहंतासुर का जन्म हुआ। इसी के साथ अहंतासुर शुक्राचार्य से गणेश मंत्र की दीक्षा प्राप्त कर ध्यान तथा जप करने लगा। सहस्रों वर्षों की कठिन तपस्या के बाद भगवान गणेश प्रकट हुए। उन्होंने अहंतासुर से कहा- तुम इच्छित वर मांगो। अहंतासुर ने उनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर राज्य, अमरत्व, आरोग्य तथा अजेय होने का वर मंगा। भगवान गणेश तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गए। अहंतासुर विषयप्रिय नामक नगर में सुख पूर्वक निवास करने लगा। अहंतासुर ने श्वशुर की सलाह और गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर विश्व-विजय के लिए प्रस्थान किया। सप्तद्वी पवती पृथ्वी अहंतासुर के अधिकार में हो गई, फिर स्वर्ग पर भी आक्रमण किया।

देवता, ऋषि, मुनि पर्वतों में छिपकर रहने लगे । धर्म-कर्म नष्ट हो गया। सर्वत्र पाप और अन्याय का बोलबाला हो गया। चारों तरफ से असहाय होकर देवताओं ने भगवान शंकर और ब्रह्मा की सलाह से भगवान गणेश की उपासना करना शुरू की। सात सौ वर्षों की कठिन साधना के बाद भगवान गणनाथ प्रसन्न हुए। उन्होंने देवताओं की विनती सुनकर उनका कष्ट दूर करने का वचन दिया। देवर्षि नारद को दूत के रूप में अहंतासुर के पास गए । उन्होंने उसे धूमवर्ण गणेश की शरण-ग्रहण कर शांत जीवन बिताने का संदेश दिया, लेकिन संदेश निष्फल हो गया। भगवान धूम्रवर्ण ने क्रोधित होकर असुर सेना पर अपना उग्र पाश छोड़ दिया। उस पाश ने असुरों के गले में लिपट कर उन्हें यम लोक भेजा।

असुरों ने भीषण युद्ध की चेष्टा की, किंतु तेजस्वी पाश की ज्वाला में वह सभी जलकर भस्म हो गए। अहंतासुर ने भगवान धूम्रवर्ण के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। संतुष्ट भगवान धूम्रवर्ण ने दैत्य को अभय कर दिया। उन्होंने उसे आदेश दिया कि जहां मेरी पूजा न होती हो, तुम वहां जाकर रहो। देवगणों ने श्रद्धापूर्वक धूम्रवर्ण की पूजा की तथा मुक्त कंठ से उनका जय घोष करने लगे।

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