पतों से लेकर पतों तक का सफर....
पतों से लेकर पतों तक का सफर....
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कहते है मिट्टी का शरीर मिट्टी में ही मिल जाएगा....लेकिन वो तो पहले ही मिट्टी पल्लित हो चुका है। कल के एक अखबार में एक बंदरिया को उपर से नीचे तक लाल जोड़े में सजे देखकर ऐसा लगा जैसे सच में ये हमारे, हम सबके पूर्वज है। आखिर शुरुआत हमारी इनसे ही हुई और आज हम काफी आगे निकल गए है। बिना किसी कपड़ों के घूमते-घूमते पतों को पहनना शुरु किया और आज वापस पतों पर ही आ गए है।

कहते है 1,70,000 वर्ष पूर्व हमने कपड़े पहनने की शुरुआत की, ठीक ठीक तो किसी को भी पता नही होगा। अब आलम ये है कि देखो देखो कपड़े देखो फूलों की छपाई देखो, परदे की सिलाई देखो, साड़ी की डिजाइन देखो, चुनर की पहनाई देखो.......हर कोई एक दूसरे से हट के पहनने की आफत में सर पर फूल तो कपड़ों में फैब्रिक की जगह, फैब्रिक छोड़कर सब कुछ पहन रहा है।

अभिनेता की तो पहचान ही कपड़े है पर कॉम्पीटिशन बहुत तगड़ा हो गया है। मीडिया एयरपोर्ट से लेकर उनके दरवाजे तक कैमरा टिल्ट करके बैठे रहती है, जैसे ही किसी ने एक कपड़े को दोबारा पहना कि बस, यही है वो ड्रेस जिसे कल जूतों के साथ बैंकॉक जाते हुए और आज बिना जूतों के शोक सभा में जाते हुए फलां ने पहना है। गुस्ताखी इतनी बढ़ गई कि अमिताभ बच्चन को भी पूछना पड़ा ये सूट किसी ने पहले पहनी तो नही है। और कोई इतना भन्ना जाता है कि अच्छी ड्रेस को भी देखकर यार इट्स नॉट सूटस यू कह जाता है। अब राजकुमार को ही ले लीजिए....एक बार बच्चन साहब का सूट पसंद आया...तो पूछ आए जानी ये सूट बहुत अच्छा है, टेलर का नाम बता दो घर के लिए परदे बनवाने है। जितनी जल्दी तारीफ उतनी ही जल्दी झाड़ से नीचे भी। गोविंदा से कहे जानी,शर्ट बेहतरीन है...गोविंदा ने भी सोचा अब इतनी बड़ी हस्ती तारीफ कर रही है, तो शर्ट उन्ही को समर्पित कर दूँ। अगले दिन उस शर्ट का रुमाल बनाकर पॉकेट में लिए घूम रहे थे।

ये तो थी अभिनेता की बात, अब नेता जी की। चाय वाले प्रधानमंत्री जी शिक्षक दिवस पर बच्चों से मुखातिब हुए तो बताने लगे किस्सा कपड़ो का। कितने लोग कहते है, मैं मोदी जी का डिजाइनर हूँ। पर मैं तो अपने कपड़े खुद ही डिजायन करता हूँ। गर्मी लगी तो अपने कुरते की बाजू फाड़ दी और उससे हवा भी लगने लगी। कपड़े भी बचते थे और खर्च भी कम। राहुल गाँधी हमेशी सादे कुरते की आस्तीन चढ़ाए नजर आते है।

है तो वाकई जरुरी ये कपड़े, कभी लोगो में चर्चा का केंद्र बनने के लिए तो कभी खुद को बारमबार शीशे में निहारने के लिए। भगवान को भी हम प्रतीकात्मक रुप में कपड़े चढ़ाते है। मंदिर में मैंने देखा भगवान को भी एक भक्त केवल मौली धागा चढ़ा रहा था। ख्याल आया कि क्या भगवान भी मॉर्डनाइजेशन के रंग में रंग गए है। 30% सलाना की दर टेक्सटाइल इंडस्ट्री ग्रोथ कर रही है,20% की दर से मार्केटशेयर में बढ़ोतरी हो रही है और फिर भी कपड़ो की इतनी किल्लत की इंसान तो इंसान भगवान के लिए भी कपड़े नही बचे है।

आज कपड़ो को जितना करीने से पहनते है,कल पतों को उससे ज्यादा सजाकर पहनते थे। आज 10 लाख लगाकर एक बंडी बनाते है,फर्क बस इतना सा है कि उसमे नाम गुदे हुए है, तो पूरा देश गरजने लगता है। पहन तो आज भी वही रहे है बस साड़ी अब डिजाइनर और रेडी-टू-वियर हो गई है, घाघरा अब लहंगा है, लाछा अब पलाजो है तो सलवार पजामा डिजाइनर पीस है।

पर मुझे तो यह एक साइकल(चक्र) लगता है। जो कल था वो आज फिर है और जो आज है वो कल फिर होगा।

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