जानिए आखिर क्यों मनाई जाती है डोल ग्यारस?

जानिए आखिर क्यों मनाई जाती है डोल ग्यारस?
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कृष्ण जन्माष्टमी के पश्चात् आने वाली एकादशी को डोल ग्यारस बोलते हैं। श्रीकृष्ण जन्म के 18वें दिन माता यशोदा ने उनका जल पूजन (घाट पूजन) किया था। इसी दिन को 'डोल ग्यारस' के तौर पर मनाया जाता है। जलवा पूजन के पश्चात् ही संस्कारों का आरम्भ होता है। कहीं इसे सूरज पूजा बोलते हैं तो कहीं दश्टोन पूजा बोला जाता है। जलवा पूजन को कुआं पूजा भी बोला जाता है। इस ग्यारस को परिवर्तिनी एकादशी, जलझूलनी एकादशी, वामन एकादशी आदि के नाम से भी जाना जाता है।

ग्यारस का महत्व:-


शुक्ल-कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को चंद्रमा की ग्यारह कलाओं का असर जीवों पर पड़ता है। इसके फलस्वरूप शरीर के हालात तथा मन की चंचलता स्वाभाविक तौर पर बढ़ जाती है। इसी वजह से उपवास द्वारा शरीर को संभालना तथा ईष्टपूजा द्वारा मन को नियंत्रण में रखना एकादशी व्रत विधान है तथा इसे मुख्य तौर पर किया जाता है। 'डोल ग्यारस' के मौके पर कृष्ण मंदिरों में पूजा-अर्चना होती है। प्रभु श्री कृष्ण की मूर्ति को 'डोल' (रथ) में विराजमान कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस मौके पर कई गाँव-नगर में मेले, चल समारोह तथा सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन भी होता है। इसके साथ-साथ डोल ग्यारस पर ईश्वर राधा-कृष्ण के एक से बढ़कर एक नयनाभिराम विद्युत सज्जित डोल (रथ) निकाले जाते हैं। इसमें साथ चल रहे अखाड़ों के उस्ताद एवं खलीफा और कलाकार अपने प्रदर्शन से सभी का मन रोमांचित करते हैं।

वही एकादशी तिथि (ग्यारस) का वैसे भी हिन्दू धर्म में बहुत महत्व माना गया है। कहा जाता है, की जन्माष्टमी का उपवास डोल ग्यारस का उपवास रखे बगैर पूर्ण नहीं होता। एकादशी तिथि में भी शुक्ल पक्ष की एकादशी को उत्तम माना गया है। शुक्ल पक्ष में भी पद्मिनी एकादशी का पुराणों में बहुत अहम बताया गया है। बताया जाता है कि एकादशी से बढ़कर कोई उपवास नहीं है। एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्र जितनी कम रहेगी, उपवास पूरा करने में उतनी ही ज्यादा सात्विकता रहेगी। जन्माष्टमी के पश्चात् आने वाली एकादशी जलझूलनी एकादशी के नाम से जानी जाती है। इस दिन रात होते ही मंदिरों में विराजमान प्रभु के विग्रह चांदी, तांबे, पीतल के बने विमानों में बैठक भक्ति धुनों के मध्य एकत्रित एकत्र होने लगते हैं। ज्यादातर विमानों को भक्त कंधों पर लेकर चलते हैं। परम्परा है कि वर्षा ऋतु में पानी खराब हो जाता है, मगर एकादशी पर प्रभु के जलाशयों में जल विहार के पश्चात् उसका पानी निर्मल होने लगता है। शोभायात्रा में सभी समाजों के मंदिरों के विमान निकलते है। कंधों पर विमान लेकर चलने से प्रतिमा झूलती हैं। ऐसे में एकादशी को जल झूलनी बोला जाता है।

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