अमिताभ और शशि कपूर के किरदार को लोग आज भी करते है याद, फिल्म को 45 साल हुए पुरे
अमिताभ और शशि कपूर के किरदार को लोग आज भी करते है याद, फिल्म को 45 साल हुए पुरे
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बॉलीवुड की जानी मानी फिल्म दीवार भारतीय पॉपुलर सिनेमा की दुनिया का वो शाहकार है, जिसका जादू 45 साल बीतने के बाद भी बना हुआ है। इसके अलावा यश चोपड़ा निर्देशित और सलीम-जावेद की लिखी ये फिल्म ठीक 45 साल पहले यानी 24 जनवरी, 1975 को प्रदर्शित हुई थी। वही फिल्म विश्लेषकों की राय के मुताबिक़ दीवार ने जंजीर से उभरे एंग्री यंग मैन के तौर पर अमिताभ बच्चन की छवि को ऐसा सीमेंटेड किया कि अगले तीन दशक तक उनकी ऐसी छवि बनी रही।इसके साथ ही  वैसे दिलचस्प यह है कि जिस विजय का किरदार निभाकर अमिताभ बच्चन अपने चाहने वालों के दिलों पर आज तक राज कर रहे हैं, वही उस किरदार के लिए वे पहली पसंद नहीं थे। और ना ही छोटे भाई के पुलिस इंस्पेक्टर का किरदार शशि कपूर को मिलना था। विजय का किरदार पहले राजेश खन्ना को निभाना था और रवि की भूमिका के लिए नवीन निश्चल चुने गए थे। परन्तु यश चोपड़ा के साथ इन दोनों की जमी नहीं और फिर ये भूमिका अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के हिस्से में आ गई। इस फिल्म का जादू यदि आज तक क़ायम है तो इसमें अमिताभ बच्चन-शशि कपूर की जोड़ी के अभिनय के अलावा दमदार कहानी, चुस्त पटकथा और एक से बढ़कर एक डॉयलॉग की भूमिका रही है। सलीम-जावेद की अधिकतर फिल्मों का नायक अपने पिता के विरुद्ध विद्रोही तेवर अपनाने वाला नज़र आता है, लेकिन दीवार के नायक के साथ उन्होंने इसका एक मार्मिक पहलू भी जोड़ दिया है।

इसके अलावा अमिताभ बच्चन की बांह पर लिखा है- 'मेरा बाप चोर है।' अपने पिता के प्रति अमिताभ दीवार में ग़ुस्से से भरे दिखाई देते हैं लेकिन यहां सांत्वना के बोल उनके पिता को भी मिलते हैं, जिनकी भूमिका एक मिल में मजदूर यूनियन के नेता की है, जिन्हें मालिकों ने षड्यंत्र से चोर बेईमान साबित कर दिया है। इसके साथ ही दो बेटों को पालने संवारने के साथ साथ नैतिक मूल्यों पर खरी मां की सशक्त भूमिका निरूपा राय ने निभाई है। क्लाइमेक्स में उनकी छवि मदर इंडिया की लीजेंडरी नरगिस की भूमिका से मेल खाती दिखती है जिन्होंने एक लड़की के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने के चलते अपने नायक बेटे को गोली मार दी थी। दीवार में ऐसे कई सीन थे, जो 1975 के हिसाब से आम जन मानस को झकझोरने वाले थे। वही मसलन बचपन से ही अमिताभ बच्चन अपनी मां के साथ मंदिर नहीं जाते हैं, वे मंदिर के बाहर खड़े होते हैं। इसके अलावा एक मासूम बताता है कि वह भगवान को नहीं मानता और जो भी करेगा अपने दम पर करेगा। आज के दौर में बनी फिल्मों में ऐसे दृश्य रखे जाएं तो विवाद उत्पन्न हो जाएगा। लेकिन आज से महज चार दशक पहले तक ऐसे सीन फिल्म की कहानी को कहीं दमदार बनाते हैं। 

वही भगवान को नहीं मानने वाला वह लड़का बूट पालिश करके पैसा कमाता है ताकि मां की मुश्किलें थोड़ी कम हों। महज सात आठ साल की उम्र में उनका साहस इतना है, पालिश करने के बाद जब एक सेठ उन्हें पैसे फेंक कर देता है तो वे बोलता है, "मैं फेंके हुए पैसे नहीं उठाता।" सेठ भी बच्चे की दिलेरी से ऐसा प्रभावित हुआ कि अपने आदमी से बोलता है कि देखना ये लड़का एक दिन बहुत आगे जा सकता है । अमिताभ ने अपने बचपने में ही पढ़ाई नहीं करने का फैसला किया जिससे छोटा भाई पढ़ सकता है । और बीसेक साल बाद जब वही सेठ अपने साथ गैर क़ानूनी काम के लिए उसी युवक को टेबल पर पैसे फेंक कर देता है तो इसके साथ ही आत्मविश्वास से लबरेज वह युवा कहता है, "मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता है।" अमिताभ बच्चन को ये डॉयलॉग रिपीट करते हुए देखकर सिनेमा हॉल में 1975 में भी तालियां बजती थीं, 1985, 1995 और 2005 में भी।

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