आखिर किस बात से है मीडिया का सरोकार
आखिर किस बात से है मीडिया का सरोकार
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सुबह सबेरे गर्मा- गर्म और इलायची की महक वाली चाय का मग हाथ में थामकर जब आप अखबार के पन्नों पर नज़रें गढ़ाने लगते हैं तो फ्रंट पेज देखकर ही आपका माथा चढ़ जाता है, अखबार के अंदरूनी पन्नों की बात तो छोडि़ए आपका मन अखबार पटक देने का मन करता है। फ्रंट पेज पर ही जब आप पढ़ते हैं कि कैब में अमूक महिला से बलात्कार, अब बलात्कारी ने बलात्कार करने के लिए कौन सा तरीका अपनाया यह सब लिखा होता है, तो आपका माथा ठनक जाता है। आपको लगता है जैसे आज तो सुबह खराब होने वाली है।

खबरों के लिए जैसे ही आप खबरिया टेलीविज़न चैनल पर जाती हैं, न्यूज़ एंकर कंमेंट्रेटर की तरह गला फाड़ - फाड़कर चिल्लाता नज़र आता है, आज पेश होंगे सलमान, पेश होने के पहले सलमान को खिलाई गई खीर। व्हाईट शर्ट और जींस में पहुंचेंगे सलमान। इसके बाद कुछ देर तक आप चैनल देखने के लिए टेलीविज़न के सामने सारा ध्यान लगाकर बैठ भी जाती हैं लेकिन थोड़ी ही देर में आपको लगने लगता है जैसे किसी ने आपके सर पर ढेर सारा वजन रख दिया हो।

शाम होते होते तो सलमान का स्टारडम ही उस खबरिया चैनल पर टीआरपी के तौर पर भुनाया जाने लगता है। जैसे सलमान ने समाज उपयोगी हिट फिल्म दी हो। ऐसा लगता है जैसे सलमान किसी मल्टीप्लेक्स से अपनी फिल्म की स्क्रीनिंग कर वापस लौटे हों। जी हां, दोष इसमें सुपर स्टार सलमान खान का नहीं है न ही उन्हें चाहने वालों का है। मगर पिछले वर्षों से जो हालत मीडिया की हो चली है वह एक बड़ा प्रश्न लगता है। अपने आपको लोकतंत्र के चैथे स्तंभ कहने का दंभ भरने वाला मीडिया वाॅक थ्रू के नाम पर घटनाओं का लाईव डेमो देने लगा है। खबर यदि किसी महिला के बलात्कार की होती है तो उसकी डिटेल बार - बार दिखाकर पहले से ही उसकी अस्मत को मीडिया मार्केट में तार - तार कर दिया जाता है।

यदि कोई किसान फांसी लगाकर आत्महत्या करता है तो उसका डेमो ऐसे दिया जाता है जैसे प्रसारण के दौरान ही कोई फांसी लगाकर आत्महत्या करने वाला है। जिस तेजी से समाचार कार्पोरेट हाउसेस के हाथ का खिलौना बनते चले जा रहे हैं वह चिंता का विषय है। इस मसले पर कई बार समाज चिंतकों, जिम्मेदारों ने सवाल उठाए हैं लेकिन इस ओर गंभीरता से कोई ध्यान नहीं दे रहा है। संविधान के अनुच्छेद 19 1 क की आड़ में खबरिया जगत अपने सरोकार को भूल गया है।

अब तो यहां भी बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रूपैया की तर्ज पर केवल टीआरपी जनरेट करने के लिए सामग्री दी जाने लगी है। एक हास्यास्पद तथ्य तो यह है कि जो खबरिया चैनल खुद को लगातार देश के अग्रणी राष्ट्रीय चैनलों की दौड़ में सबसे आगे बताते हैं उन्हें देश के मसलों से कोई सरोकार नहीं रहता। उनके लिए दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, कोलकाता, चैन्नई की खबरें ही प्रमुख होती है। यदि मध्यप्रदेश का कोई गांव डूब की जद में आ जाए, पाले की मार से फसल बर्बाद हो जाए तो उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता।

यही नहीं यदि महाराष्ट्र किसी दूरस्थ गांव में कोई किसान कर्ज के बोझ के तले दबकर खामोशी से मौत को गले लगा ले तो खबरिया चैनल इस ओर ध्यान तक नहीं देते लेकिन जैसे ही दिल्ली में एक किसान फंदा डालकर आत्महत्या कर लेता है तो मीडिया सड़क से संसद तक ऐसा माहौल बना देता है जैसे अब परिवर्तन की आंधी चलने वाली है। मगर अगले ही पल मीडिया को टीआरपी के लिए मसाला मिल जाता है और बात उठने लगती है किसी स्टार खिलाड़ी और फिल्म स्टार की लव रिलेशन की और आम आदमी की मौत सन्नाटे में कहीं दबी रह जाती है। आखिर ऐसा क्यों। दरअसल मीडिया भी व्यावसायिक दबावों के चलते कार्पोरेट इंडस्ट्री में तब्दील हो चुका है।

अब संपादकीय कार्यालयों का स्थान प्रायवेट लिमिटेड के कैबिन लेने लगे हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया अब कार्पोरेट मीडिया हाउस में बदल चुका है। हालांकि प्रिंट मीडिया में आज भी काफी संजीदगी से कार्य किया जा रहा है। मगर यहां पर भी विज्ञापन, स्पेस सेलिंग और टारगेट सर्कुलेशन का दबाव है। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में तो आज भी टेलीविजन रेटिंग पाॅइंट सब पर भारी है। चुनिंदा शहरों के चुनिंदा क्षेत्रों में लगे टाईम मीटर्स से देश के सरोकार की नब्ज़ टटोली जा रही है। ये टाईम मीटर्स महानगरों के उच्च वर्ग की पसंद - नापसंद जाहिर कर देते हैं और इन्हें ही पूरे देश की पसंद मान लिया जाता है।

रीज़न मीडिया की अपनी मजबूरी है। 7 दिन 24 घंटे के लिए कंटेंट की जरूरत है सो क्राईम दिखा - दिखाकर उसे पूरा कर दिया जाता है। यहां विज्ञापनों का अपना दखल है। रीज़नल मीडिया को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला कारक पेड और अनपेड न्यूज़ है। अब खबरों को फ्लैश करने और न करने की बातें रूपैये की ताकत से तय होने लगी है। जिस वजह से सामाजिक सरोकार यहां भी प्रभावित हो रहे हैं। अब मीडिया महज एक मोहरा बनता जा रहा है।

जिसे दुनिया की बिसात पर खुद को कायम रखना हो उसके लिए एक नए चैनल का नाम और उसका आईडी तैयार है, और यदि इसमें कोई परेशानी हो तो न्यूज़ पेपर का दफ्तर आपके स्वागत में तैयार है बस आपको ब्यूरो बनने के साथ टारगेट का शगुन थाली में रखना होगा। फिर तो आपका काम बनते देर ही नहीं लगेगी। यही हाल चैनलों के हैड आॅफिसेस में देखने को मिल रहे हैं। पहले से ही साधन संपन्न परिवार के विद्यार्थी ग्लैमर के चलते यह प्रोफेशन अपना रहे हैं और फिर इसके सामाजिक पहलू को न समझते हुए, काॅर्पोरेट के बताए रास्ते पर अंधी दौड़ लगा रहे हैं।

कौन सबसे पहले है इसकी चिंता सभी को करनी है लेकिन कौन क्या कंटेंट दे रहा है, मुंह से किस तरह के संवाद निकल रहे हैं, यह सब इग्नोर किया जा रहा रहा है। हालांकि लंबे समय से मीडिया के इस बदलते स्वरूप पर गंभीरता से चिंतन किया जा रहा है लेकिन हर बार बात बस सेल्फ रेग्युलेशन तक सीमित कर दी जाती है। इसके तहत कहा जाता है कि कुछ मामलों में मीडिया हाउस तय करें कि उन्हें अपने चैनलों में क्या सामग्री देनी है मगर बहुत बार सेल्फ रेग्युलेशन की बात को भी दरकिनार कर दिया जाता है।

नतीजतन समाज में भय, कुंठा, वैमनस्य, बिखराव, अलगाव और उपद्रव बढ़ने के साथ कई तरह की परेशानियां सामने आती हैं। बहरहाल फिलहाल तो मीडिया कार्पोरेट के कुचक्र से निकलता हुआ नज़र नहीं आता। अलबत्ता आम आदमी के बीच मीडिया का प्रभाव कुछ फीका पड़ता हुआ जरूर दिखाई दे रहा है। इससे चैनलों की विवरशिप और अखबरों के सर्कुलेशन पर भविष्य में असर होने की संभावना है। ऐसे में इनके आर्थिक सरोकार भी प्रभावित होने से इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि मीडिया ही कहता है जो दिखता है वही बिकता है।

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