आतंक के विरुद्ध एकजुटता के अर्थ, अलग-अलग क्यों
आतंक के विरुद्ध एकजुटता के अर्थ, अलग-अलग क्यों
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( पाकिस्तान म्यांमार की तरह सहयोगी क्यों नहीं हो सकता ? )

सोमवार को फिर आतंकियों ने मानवता और लोकतन्त्र पर एक और हमला बोला । इस बार अफ़ग़ानिस्तान की संसद को निशाना बनाया । बमों और गनों से लैस तालिबानी आतंकी संसद के अंदर घुसकर एक लोकतान्त्रिक संस्था को कमजोर साबित करने आये थे । उनके इरादे तो पूरे नहीं हुए; किन्तु उन्होने यह जरूर दिखा दिया कि अफ़ग़ानिस्तान मे आतंकी ताक़तें अभी भी पूर्ण सक्रिय हैं और मुट्ठी भर आतंकी भी जब आत्मघाती इरादों से कुछ करने निकलते हैं; तो वे बड़ी-से बड़ी सुरक्षा-व्यवस्था को ध्वस्त कर सकते हैं । अब तो यह भी सभी देशों को समझ आ गया है कि, दुनिया के अनेक देशों में आतंकवादी तत्व फैल चुके हैं और कोई भी देश इसके खतरों से पूरी तरह आश्वस्त नहीं रह सकता है ।

इस संदर्भ में कुछ ही दिन पहले म्यानमार में भारतीय सेना ने जो कार्यवाही की और उस पर पाकिस्तानी नेताओं ने जो प्रतिक्रिया दी, उसे याद करना भी जरुरी होगा । इस बात में कोई संदेह नहीं है कि हमारी सेना ने म्यानमार की सरकार की सहमति से ही वह कार्यवाही की थी । किन्तु, जब हमारे रक्षा राज्यमंत्री ने इस सहमति का उल्लेख किया तो वहाँ के प्रवक्ता ने इस बात का खंडन किया । सोचने वाली बात यह है कि जब आतंकियों के खिलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता को सभी राष्ट्रों ने स्वीकार किया है; तो भारतीय सेना की कार्यवाही में और म्यानमार द्वारा उसके लिए सहमति देने में गलत ही क्या था; जो म्यानमार को यह स्वीकार करने में कोई शर्म महसूस हो रही थी ? एकजुटता और सहयोग की तो सार्थकता तभी है ना, जबकि मिलजुलकर आतंक के ठिकानों को नष्ट किया जाए ।

ऐसे में इस घटना पर पाकिस्तान की प्रातक्रिया तो और भी चिंतनीय है । पाक के एक मंत्री ने कहा कि पाकिस्तान कोई म्यानमार नहीं है कि भारत यहाँ ऐसी जुर्रत कर ले । पहली बात तो यह कि, एक प्रकार से पाक ने यह स्वीकार कर लिया कि पाकिस्तान में आतंक के अड्डे हैं और पाकिस्तानी सरकार उन्हें संरक्षण दे रही है एवं देते रहना चाहती है । दूसरी बात यह कि वह ऐसा कहकर पहले तो म्यानमार का अपमान कर रहा है और फिर ऐसा जता रहा है, जैसे भारत ने कोई बड़ा गुनाह किया हो । यह सवाल किसी देश के बड़े या छोटे होने का नहीं है । उससे कही बड़ा प्रश्न है कि आतंक के खिलाफ़ किस सरकार का क्या रवैया है ?

माना कि आतंकियों के खिलाफ़ कार्यवाही करने की पहली ज़िम्मेदारी उस देश की सरकार की होती है, जहां वे आतंकी मौजूद हैं । ऐसे ही किसी भी देश की सीमा में जाकर कार्यवाही करने की खुली छुट किसी अन्य देश को नहीं होनी चाहिये। यदि कोई दूसरा देश ऐसी कार्यवाही कर्रे तो यह उस देश की सार्वभौमिकता का हनन माना जायेगा । किन्तु यहाँ मामला कई तरह से अलग था । वे आतंकी भारत में वारदात करते थे और म्यानमार में ठिकाना बनाए हुए थे । यदि चूहों के बिल किसी एक घर में हो और वे पड़ोसी के यहाँ नुकसान पहुंचाते हो तो घर मालिक अपने पड़ोसी को अपने घर में आकर चूहे मारने की इजाज़त क्यों नहीं दें ? यदि घर-मालिक किसी भी कारण से चूहों को नहीं मर प रहा हो, तो जिस पड़ोसी के पास उन चूहों के बिलों की पूरी जानकारी हो या विशेष क्षमता हो, वह पड़ोस में जाकर प्रभावी कार्यवाही क्यों न करें ?

होना तो यह चाहिये था कि म्यानमार और भारत दोनों बहुत गर्व से अपने इस परस्पर सहयोग को साथ-साथ खुशी से घोषित करते और दुनिया से इस नजीर का अनुकरण करने के लिये कहते । अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भी चाहिये था कि वह दोनों देशों की इस कार्यवाही की प्रशंसा करे और विशेषकर पाकिस्तान से यह अपील करे कि वह ऐसे उदाहरण से सीख ले । परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ और पाकिस्तान के उस मंत्री के द्वारा आतंक को संरक्षण व प्रोत्साहन देने वाले बयान की कोई कड़ी निंदा नहीं हुई ।

इसका अर्थ यह है कि दुनिया में आतंक की खिलाफ़त और उसमें अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के मामलों में दोहरे मापदंड हैं । अमेरिका तो अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में ‘नाटो’ का लेबल लगाकर सरकारों को बदल देता है और अन्य देश ताली बजाते हैं । उसकी दादागिरी वाली कार्यवाही से भी दुनिया इसलिए खुश है, क्योंकि उससे दुनिया में कट्टरता और आतंकवाद के केंद्र बन जाने का संकट दूर हुआ । इसकी तुलना में भारत यदि अपने गुनहगारों को अन्य देश की सरकार की सहमति लेकर उस देश में जाकर सजा देता है, तो इस वाजिब काम की अपेक्षित प्रशंसा नहीं होती, बल्कि पाक जैसे देश उसे जुर्रत तक कहने की जुर्रत करते हैं ।

आज भी स्वयं पाकिस्तान में अमेरिकी गुप्तचर ही नहीं सेना भी मौजूद है और उन्होने वहाँ लादेन को ही खत्म नहीं किया है; अनेकों ड्रोन हमले करके हजारों आतंकियों को अब तक मारा है । लेकिन भारत के गुनहगार और उसके खिलाफ़ आतंकी गिरोह बनाने वाले तत्व पाकिस्तान में उसकी सेना के संरक्षण में ही बढ़ रहे हैं । अमेरिका, नाटो और संयुक्त राष्ट्र संघ इस दोहरेपन पर क्या कर रहे हैं ? अमेरिका के सामने पिट्ठू बना हुआ पाकिस्तान भारत को अकड़ क्यों दिखा रहा है ? अफ़ग़ानिस्तान में अभी जो कुछ हुआ, उसके बाद अमेरिका जो कुछ करेगा, उससे भी साबित हो जायेगा ‘दूसरे देश में आतंक के खिलाफ़ कार्यवाही की सीमाएं’ विभिन्न देशों के लिये अलग-अलग मानी जाती है ।    

खैर उपरोक्त तो पाकिस्तान और दुनिया के ताकतवर देशों के पाखंड को उजागर करने वाले प्रश्न हैं; पर सकारात्मक प्रश्न यह है कि म्यानमार की तरह पाकिस्तान ही नहीं, दुनिया के सभी देश एक-दूसरे का सहयोग करके दुनिया से आतंक के सभी अड्डे नष्ट क्यों नहीं कर सकते ? जब दुनिया जानती और मानती है कि आतंक के खिलाफ़, सबसे अधिक सीख लेने कि जरूरत पाकिस्तान सरकार और सेना को है; तो दुनिया का दादा अमेरिका उसे यह सीख लेने के लिये प्रेरित क्यों नहीं करता ? क्या अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता मात्र भाषणों के लिये है ? और भाषणों में भी तो उस (एकजुटता) का एक ही अर्थ सभी को समझाया जाना चाहिये ?

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