उप्र में सभी दल की निगाहें अतिपिछड़े वोट बैंक पर
उप्र में सभी दल की निगाहें अतिपिछड़े वोट बैंक पर
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उत्तर प्रदेश: एक दशक बाद उत्तर प्रदेश में फिर से 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के जिन बन्द बोतल से बाहर आ गया है। विधानसभा चुनाव -2017 को दृष्टिगत रखते हुए समाजवादी पार्टी ने 24 नवम्बर को पार्टी कार्यालय में 17 अतिपिछड़ी जातियों का सम्मेलन करा सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने इस मुद्दे को पुन: धार देकर अपने पाले में कर 2017 की चुनावी नैया पार करने का अभियान छेड़ दिया है। अतिपिछड़ी जातियों की उत्तर प्रदेश में निर्णायक स्थिति को देखते हुए सपा, बसपा, भाजपा, कांग्रेस सहित अन्य छोटे दलों की निगाहें अतिपिछड़े वोट बैंक पर लगी है।

बिहार विधानसभा चुनाव में पिछड़ी, अतिपिछड़ी जातियों की मजबूत गोलबन्दी से इस वोट बैंक का और अधिक महत्व बढ़ गया है।बिहार विधानसभा चुनाव में धुर विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर अतिपिछड़ा का मुद्दा जोरदार ढंग से उठाकर राजनीतिक पंडितों के सारे आकलन को झुठलाते हुए महागठबंधन को अप्रत्याशित जीत दिलाकर भाजपा को सदमे की स्थिति में पहुंचा दिया है। मुलायम सिंह यादव ने ठीक वैसा ही प्रयोग करने की कोशिशें तेज कर दी है पर बिहार जैसा उत्तर प्रदेश में जातिगत व वर्गीय ध्रुवीकरण असम्भव है। 

मुलायम ने अतिपिछड़े वर्ग के सम्मेलन में यह कहकर कि - पिछड़ों की आबादी 54 प्रतिशत है, पर 7-8 प्रतिशत वाले ही शासन करते आ रहे है, यह कथन पिछड़ों को उग्र कर अपने पाले में करने की कोशिश का हिस्सा है। जब तक माया व मुलायम एक साझा गठबंधन नहीं बनाएंगे, तब तक बिहार जैसा चमत्कार उप्र में सम्भव नहीं है।बिहार में महागठबंधन के पक्ष में पिछड़े, अत्यन्त पिछड़े, दलित, महादलित, अल्पसंख्यक, बहुमत के साथ जुट गये हैं। यदि राजद व जदयू गठबंधन नहीं बनता तो भाजपा को सत्ता में आने से कोई रोक नहीं सकता था। कांग्रेस को तो मुफ्त में महागठबंधन के तहत 41 सीटें मिली और उसने 27 विधायक बना लिये अन्यथा उसका खाता भी नहीं खुलता।

उत्तर प्रदेश में भाजपा, बसपा, सपा को अच्छी तरह पता है कि पिछड़ों में अत्यन्त पिछड़े निषाद, मल्लाह, केवट, राजभर, कुम्हार, बिन्द, धीवर, कहार, गोड़िया, मांझी आदि जातियों की निर्णायक संख्या हैं और इन जातियों का झुकाव जिस दल की ओर होता है वह सबसे आगे निकल जाता है। यदि विधानसभा चुनाव-2002, 2007 व 2012 के परिणाम को देखा जाय तो 2 से 3.5 प्रतिशत मतों के हेर फेर से सपा व बसपा की सरकारें बनती रहीं हैं। ऐसे में 17 अतिपिछड़ी जातियों की 17 प्रतिशत से अधिक संख्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में अति महत्वपूर्ण है।

पिछड़ा-अतिपिछड़ा का कार्ड उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम 2001 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने खेला था। उन्होंने सामाजिक न्याय समिति-2001 की सिफारिश के अनुसार जो छेदी लाल साथी आयोग-1974 पर आधारित थी, के अनुसार ओ.बी.सी. का तीन श्रेणियों में विभाजन कर क्रमश: 5 प्रतिशत, 8 प्रतिशत व 14 प्रतिशत तथा दलितों का दो वर्गो में विभाजन कर 10 व 11 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था का कदम उठाए उस समय सपा, बसपा, दोनों दलों ने इस आरक्षण नीति का कड़ा विरोध किया, यही नहीं विरोध में मुलायम ने अपने सभी 67 विधायकों का सामूहिक इस्तीफा दिलवा दिया था। इसके बाद भी भाजपा को 2002 में राजनीतिक लाभ नहीं मिला, त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनने पर भाजपा के साथ मायावती ने साझा सरकार बनायी।

भाजपा-2002 में राजनीतिक लाभ उठा सकती थी परन्तु उसने अतिपिछड़ों को सही ढंग से इसे समझा नहीं पायी। 2003 में सपा व भाजपा के मध्य तल्खी बढ़ने पर मुलायम सिंह यादव ने मौके का फायदा उठाते हुए बसपा, भाजपा में तोड़ फोड़ कर अपनी सरकार बनाये और अतिपिछड़ों की लामबंदी भविष्य में न हो, उन्होंने 2004 में 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का एक नया मुद्दा उछाल दिया। 2003-2006 के मध्य गैर यादव पिछड़ी जातियां सपा सरकार के उत्पीड़न, जातिवाद से काफी त्रस्त हो गयी। जिसके कारण उप्र में जंगल राज की बातें होने लगी। उस समय जितनी भी नियुक्तियां हुयी वर्तमान की तरह उसमें यादव जाति का ही बोलबाला था। 

दूसरी तरफ राजनाथ सरकार ने मछुआरा वर्ग की पुश्तैनी पेशेवर जातियों जो 17 अतिपिछड़ी जातियों में 13 हैं और इनकी संख्या लगभग 13 प्रतिशत है, के आर्थिक विकास के लिए बालू, मौरंग, खनन के पट्टे में प्राथमिकता दिया था, मुलायम सरकार ने उच्चतम न्यायालय में एस.एल.पी. दायर कराकर खत्म करा दिया। यहीं नहीं 10 अक्टूबर, 2005 को 17 अतिपिछड़ी जातियों को एस.सी. के आरक्षण का लाभ देने के लिए अधिसूचना भी जारी करा दिये। जोगी लाल प्रजापति, चन्द्र प्रकाश बिन्द, अम्बेडकर संस्थान आदि द्वारा उच्च न्यायालय में अधिसूचना के विरूद्ध याचिका योजित करा दी गयी।

सरकार का पक्ष कमजोर होने के कारण 20 दिसम्बर, 2005 से 14 अगस्त 2006 तक 17 अतिपिछड़ी जातियां त्रिशंकु की स्थिति में पड़ गयी, कारण कि स्टे के बाद ये न तो एससी रहीं और पिछड़े वर्ग से इनका नाम विलोपित हो जाने के कारण ये आरक्षण के लाभ से वंचित हो सामान्य श्रेणी के गये। खास बात यह रहीं कि अधिसूचना को स्थगित करने वाली न्यायमूर्ति सरोज बाला यादव थी जिसके कारण 17 अतिपिछड़ी जातियां सपा से खासी नाराज हो गए। विधानसभा चुनाव 2007 में उत्तर प्रदेश में लम्बे समय के बाद बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। पर मायावती ने सरकार बनते ही इन जातियों के प्रस्ताव को केन्द्र सरकार से वापस मंगाकर निरस्त करने का निर्णाय अपने प्रथम कैबिनेट बैठक में लिया। 17 में 13 जातियां निषाद, मछुआरा समुदाय की ही इन जातियों का परम्परागत पेशा मत्स्य पालन, बालू, मौरंग, खनन आदि है जिसे बसपा सरकार ने छीन लिया, श्रेणी-3 के तालाबों का पट्टा निरस्त कर दिया। 

बसपा से खफा 17 अतिपिछड़ी जातियों ने एक बार फिर फुटबाल की बाल की तरह सपा के साथ आ गई जिससे सपा को उसकी उम्मीदों से अधिक 224 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का अवसर मिला। पुन: सपा इन जातियों को अपने पाले में बनाये रखने के लिए अनुसूचित जाति में शामिल करने का मुद्दा उछाल दिया है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव व बसपा प्रमुख मायावती को अच्छी तरह पता है कि 17 अतिपिछड़ी जातियों के पास सत्ता की चाभी है इसलिए मुलायम मिशन-2017 के मद्देनजर एक बार फिर अतिपिछड़ी जातियों को अपने पाले में करने की कवायद में जुट गए है और भाजपा, बसपा, कांग्रेस आदि भी तल्ख विरोध में जुबानी जंग शुरू कर दिये है। भाजपा को पता है कि जब-जब अतिपिछड़ा भाजपा के साथ रहा भाजपा को सत्ता मिली। इसलिए भाजपा भी अतिपिछड़ों को अपने पाले में करने के लिए गहन मंथन में जुटी है। अतिपिछड़ों का आरक्षण मुद्दा जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आयेगा। अतिपिछड़ों को गोलबन्द करने के लिए राजनीतिक दलों में जुबानी जंग तेज होगी।

राजनीतिक विश्लेषकों व राजनीतिक पण्डितों के मुताबिक वोट बैंक की दृष्टि से प्रदेश में अतिपिछड़ी जातियों का सबसे बड़ा वोट बैंक है। सम्भवत: यहीं कारण है कि 43 प्रतिशत से अधिक गैर यादव पिछड़ों में कुर्मी, लोधी, जाट, गूजर, सोनार, गोसाई, कलवार, अरक आदि की 10.22 व एवं मल्लाह, केवट, किसान, कुम्हार, गड़ेरिया, काछी, कोयरी, सैनी, राजभर, चैहान, नाई, भुर्जी, तेली आदि 33.34 प्रतिशत संख्या वाली अत्यन्त पिछड़ी हिस्सेदारी वाले इस वोट बैंक पर हर दल की नजर है। सपा जहां 17 अतिपिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के मुद्दो को तूल देती दिख रही है तो बसपा अतिपिछड़ों को काडर कैम्प के जरिये अपने पाले में करने की कोशिश में है।

उत्तर प्रदेश की सत्ता हथियाने की कवायद में जुटी भाजपा इन जातियों को 7.5 प्रतिशत विशेष आरक्षण कोटा देने व सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू करने का मुद्दा उछाल रही है। भाजपा प्रदेश की कमान किसी अतिपिछड़े को देने की सुगबुगाहट है। वहीं कांग्रेस भी इनको गोलबन्द करने की कोशिश में है। यदि उत्तर प्रदेश में तीन कोणीय संघर्ष होता है तो अत्यन्त पिछड़ी और उसमें भी 17 अतिपिछड़ी जातियों की अहम भूमिका रहेगी। विधान सभा चुनाव-2017 के संदर्भ में अतिपिछड़ों के सामाजिक चिन्तक लौटन राम निषाद का कथन है कि यदि सपा सरकार ने 17 अतिपिछड़ी जातियों को शिक्षा व सेवायोजन में 7.5 प्रतिशत आरक्षण कोटा दे दिया तो ये जातियां सपा से टस से मस नहीं होंगी।

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