अपने कैमरे से पात्रों को जीवंत करने वाले नायक थे दादा साहब फाल्के

अपने कैमरे से पात्रों को जीवंत करने वाले नायक थे दादा साहब फाल्के
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1916 से लेकर 1940 का हिंदी सिनेमा का दौर बेहद अलग था। यह फिल्म का एक ऐसा दौर था जिसने हिंदी सिनेमा को शुरूआत में ही एक अलग आयाम दिया। हिंदी और क्षेत्रीय सिनेमा आज अत्याधुनिक हो चुका है जहां किसी गाने की रिकाॅर्डिंग के लिए प्लेबेक सिंगर तक का इंतज़ार करने की भी जरूरत नहीं है। भारीभरकम साजो - सामान तक किसी मनोरम क्षेत्र में ले जाने की जरूरत नहीं है। एक हाॅल में शूटिंग हो जाने के बाद उसे उस क्षेत्र में फीट कर दिया जाता है। मगर उस दौर का सिनेमा ऐसा नहीं था।

दादासाहेब फाल्के ने उस दौर में राजा हरिश्चंद्र और पाथेर पांचाली जैसी फिल्मों में बेहतर योगदान दिया। यह बिल्कुल अलग ही था। ऐसा लगता था जैसे दादा साहेब फाल्के फिल्मांकन के लिए ही बनाए गए थे। उन्होंने कई समाज उपयोगी फिल्मों का निर्माण भी करवाया  था। उनके सृजन में दादा साहेब फाल्के, जेजे स्कूल आॅफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वे मंच के अनुभवी नेता थी थे।

उनका जन्म ज्योर्तिलिंग त्र्यंबकेश्वर के लिए पहचाने जाने वाले नासिक में 30 अप्रैल 1870 को हुआ था। उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे। मुंबई के एलफिंस्तन काॅलेज में वे प्राध्यापक थे। दादासाहेब की शिक्षा मुंबई में हुई थी। 25 दिसंबर 1891 की ही बात है। मुंबई में अमेरिका - इंडिया थिएटर में विदेशी मूल चलचित्र लाईफ आॅफ क्राइस्ट दिखाया गया था। दादासाहेब इसे देख रहे थे। चलचित्र देखने के दौरान ही उन्हें ईसामसीह के ही साथ कृष्ण, राम, समर्थ गुरू रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम आदि महान विभूतियां दर्शाई गई थीं।

उन्होंने पहली बिना संवादों वाली फिल्म राजा हरिश्चंद्र का निर्माण किया। इसमें उनके पुत्र को भी रोल दिया गया। जिसका नाम भालचंद्र फालके था। दादासाहेब नायक बने और रोहिताश्व की भूमिका उनके 7 वर्षीय पुत्र भालचंद्र फालके ने निभाई। चलचित्र सबसे पहले दिसंबर 1912 में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया। 

चलचित्र के बाद दादासाहब ने पौराणिक फिल्म भस्मासुर और मोहिन व सावित्री का निर्माण भी किया। दादा साहब फाल्के ने प्रेरक पात्रों को फिल्म के पर्दे पर जीवंत किया जिससे समाज में इन पात्रों से लोगों को उदाहरण मिला। उनके नाम पर प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कार भी रखा गया। फिल्म जगत का सबसे बड़ा सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार ऐसा प्रतिष्ठित पुरस्कार है जो फिल्म के क्षेत्र में अलग महत्व रखता है।

यह कलाकार को उसके जीवन में दिए जाने वाले उसके योगदान के लिए दिया जाता है। उनके नाम पर सरकार ने डाक टिकट भी जारी किया। दादासाहब फाल्के ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में काम किया लेकिन इसके बाद स्वयं का प्रिंटिंग प्रेस भी खोला। उन्होंने जर्मनी जाकर मशीन लाई यही नहीं एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया लेकिन बाद में वे फिल्म निर्माण से जुड़ गए उन्होंने जेजे आर्टस काॅलेज से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पाठ्यक्रम भी किया। 16 फरवरी 1944 को उनका निधन हो गया। नासिक में जन्मे दादा साहेब ने अपनी अंतिम सांसे भी नासिक में ही ली। 

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