जब ऐसा लगता है तो हम निराश क्यों होने लगते हैं
जब ऐसा लगता है तो हम निराश क्यों होने लगते हैं
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किसी चील के मुंह में बोटी या किसी पक्षी के मुंह में रोटी हो और उसे उड़ता हुआ देखें तो लगता है यह बहुत दूर जा रहा है। बस, मनुष्य का भाग्य ऐसा ही हो गया है। कभी-कभी तो लगता है, कौन उड़ा ले जाता है हमारे भाग्य को हमसे दूर? खूब प्रयास करते हैं, कोई कसर नहीं छोड़ते, योग्य भी हैं फिर भी वह क्यों नहीं मिल पाता जो मिलना चाहिए। जब ऐसा लगता है तो हम निराश होने लगते हैं।

एक छोटा सा कारण देखें तो पाएंगे कि हम लोग इस समय बहुत अधिक भागने लगे हैं। भागते-भागते भी सबकी इच्छा होती है कि छलांग लगा लें। कुछ तो हमेशा उड़ने की कोशिश में रहते हैं। यह जो तेजी है, यह अशांत अवश्य करेगी। मतलब यह नहीं कि रुक जाएं या धीमे चलने लगें। मतलब इतना ही है कि कुछ पड़ाव और जो अंतिम लक्ष्य है, वहां थोड़ा विराम लेने की वृत्ति बनाएं। रुकने का वह स्थान कोई मंदिर हो सकता है, आपका घर हो सकता है या आपका एकांत भी हो सकता है। 

इसके बाद चलेंगे तो आपकी चाल में तेजी तो होगी, लेकिन अशांति नहीं होगी। केवल शरीर और मन से संचालित लक्ष्य की यात्रा या कहें कि आपका करिअर इस समय शरीर और मन से ही जुड़ा हुआ है। इसको कहीं न कहीं आत्मा से जोड़िए। जैसे ही आत्मा का स्पर्श मिलेगा, वह आपको कुछ पड़ाव पर रुकने की समझाइश देगी और जो लोग ध्यान-योग करते हुए अपनी आत्मा से जुड़ेंगे वे लक्ष्य पर पहुंचकर आराम करना भी सीख जाएंगे। वरना लोग लक्ष्य पर पहुंचकर भी भागना बंद नहीं कर रहे हैं। इसी का नतीजा है सबकुछ मिल जाने के बाद भी अशांति। तो लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए शरीर और मन से अधिक योगदान अपनी आत्मा का भी रखिए, फिर देखिए जो मिलेगा वह अलग ही आनंद देकर जाएगा।

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