जातिगत आरक्षण: वरदान या अभिशाप ?
जातिगत आरक्षण: वरदान या अभिशाप ?
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7 जून, 1893, दक्षिण अफ्रीका पीटरमारित्जबर्ग स्टेशन पर युवा वकील मोहनदास करम चंद्र गांधी ट्रेन से यात्रा कर रहे थे। लेकिन जिस प्रथम श्रेणी के डिब्बे में वह बैठे थे, वह डिब्बा श्वेत लोगों के लिए आरक्षित (Reserved) था। इसी कारण गांधी जी को इस डिब्बे से जबरन उतारकर बाहर फेंक दिया गया, जबकि बापू के पास फर्स्ट क्लास में सफर करने का टिकट था। उस दिन महात्मा गाँधी ने पूरी रात जागते हुए बिताई थी और इस असमानता के खिलाफ आवाज़ उठाने का फैसला लिया था। लेकिन आज उन्ही बापू के देश में सामान्य वर्ग के बच्चों को कॉलेजों से, नौकरियों से निकालकर फेंका जा रहा है, योग्यता और पात्रता होने के बाद भी, क्योंकि इन क्षेत्रों में पहले से ही स्थान 'आरक्षित' है।  

आरक्षण, वो मुद्दा, जिसके इर्द-गिर्द भारत की सियासत 10 दशकों से अधिक समय घूम रही है। आज यह मुद्दा इतना ज्वलंत रूप धारण कर चुका है कि इसके लिए लोग मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं। आज जब सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया है कि आखिर नौकरी और शिक्षा में कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण जारी रहेगा ? तब इस मुद्दे को फिर से हवा मिल गई है। दरअसल, देश की सबसे बड़ी अदालत में मराठा आरक्षण के लिए याचिका दाखिल हुई है। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह भी सवाल किया है कि क्या आरक्षण का कोटा 50 प्रतिशत के अधिक किया जा सकता है, क्योंकि इससे तो बाकी लोगों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। 

बता दें कि मराठा पहला समुदाय नहीं है, जिसने आरक्षण की मांग कर रखी है, हर एक या दो सालों में हम हरियाणा के जाटों को भी इसी आग में जलते देखते है। वो भी यही साबित करने पर तुले हुए हैं कि वो पिछड़े हुए हैं और उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए। इसके चलते ये लोग आंदोलन के रूप में ट्रेनें रोक देते हैं, सड़कें जाम कर देते हैं, तोड़फोड़-आगज़नी के साथ यह मांग की जाती है कि वे आरक्षण के अधिकारी हैं और उन्हें अपना अधिकार मिलना ही चाहिए।  वहीं, संपन्न राज्य गुजरात के धनी पाटीदार समुदाय ने भी आरक्षण की मांग कर रखी है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश का कापू समुदाय, राजस्थान का गुज्जर समुदाय और भी कई अन्य समुदाय खुद को पिछड़ा साबित करने में जुटे हुए हैं। बची-खुची कसर राजनेता पूरी कर देते हैं, जो शांत बैठे लोगों को भी आरक्षण का सपना दिखाकर, उन्हें आंदोलन की आग में झोंक देते हैं।  आज जब, देश में पहले से ही आरक्षण, प्रतिभाओं का दमन कर रहा है, ऐसे में विभिन्न समुदायों द्वारा की जा रही आरक्षण की मांग ने देश को ऐसे निर्णायक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ से इस समस्या का निराकरण करना न सिर्फ जरुरी बल्कि अनिवार्य हो गया है। लेकिन इसका समाधान खोजने के लिए इसकी जड़ में जाना होगा, ताकि यह देखा जा सके कि जो आरक्षण रुपी मलहम, पीड़ितों का घाव भरने के लिए लगाया गया था, वो आज बाकी समुदाय के लिए तेजाब कैसे बन गया है ? 

भारत में कब लागू हुआ था आरक्षण:-
देश में सर्वप्रथम आरक्षण कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज द्वारा 1882 में अपनी रियासत में लागू किया गया था। उन्होंने पिछड़े वर्गों का जीवन स्तर सुधारने के लिए अपने राज्य में 50 फीसद आरक्षण लागू किया था। उनके इस आरक्षण का लाभ मराठा, कुनबियों एवं अन्य समुदायों के साथ दलितों एवं आदिवासियों को भी मिलता था। जिसके बाद वर्ष 1918 में मैसूर में और 1925 में मुंबई में आरक्षण लागू किया गया। ये तमाम आरक्षण, सामाजिक असमानता को दूर करने और पीड़ितों को न्याय दिलवाने के लिए लागू किए गए थे। 1942 में दलित उद्धारक और संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की और साथ ही सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की। 

इसके बाद वह दिन आया जब, देश का संविधान लागू हुआ यानी 26 जनवरी 1950। हालांकि, संविधान की मूल भावना लिंग, धर्म, जाट-पात, उंच-नीच आदि को दरकिनार कर प्रत्येक भारतीय को समान अधिकार देने की थी, लेकिन इसमें अनुसूचित जाती (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए विशेष प्रावधान किए गए।  इसके साथ ही 10 वर्षों के लिए SC-ST के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए उनके लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए थे। लेकिन आज भी हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के माध्यम से इस अवधि को फिर से बढ़ा दिया जाता है।  डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने खुद कहा था कि आरक्षण पिछड़ी जाति के लोगों के लिए हैं।  उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि आरक्षण प्रणाली 10 साल तक ही रहेगी किसी भी स्थिति में इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। बाबा साहेब आंबेडकर खुद ही स्थायी आरक्षण के पक्ष में नहीं थे, इसलिए उन्होंने 10 वर्षों का प्रावधान किया, लेकिन वोट बैंक के चलते सियासी दलों ने इसे मुद्दा बनाए रखा और एक समुदाय को बढ़ावा देने के चक्कर में दूसरों का जीवन लगातार गर्त में समाता चला गया। 

बता दें कि मौजूदा व्यवस्था के अनुसार, अनुसूचित जाति को 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है। इसके अनुसार, 50.5 आरक्षण भारत सरकार द्वारा दिया जाता है। इसके अलावा 2019 में मोदी सरकार द्वारा सामान्य जाति के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान किया गया था। इससे पहले सवर्ण जाति के लोग आरक्षण का दंश सहते आ रहे थे। हालांकि, इस प्रावधान से भी सवर्ण समुदाय को कोई ख़ास फायदा नहीं मिला है। आज हमें यह समझने की जरुरत है कि अगर देश से उंच-नीच और अमीर-गरीब का भेद मिटाना है, तो इसके लिए जातीय आधार पर आरक्षण न देते हुए आर्थिक आधार पर देने की व्यवस्था करनी होगी। ताकि जरूरतमंद को इसका लाभ मिल सके और किसी की योग्यता का हनन न हो। 

आरक्षण पर क्या थी देश के दिग्गज नेताओं की राय :-

महात्मा गाँधी:-  12 दिसंबर 1936 को बापू ने 'हरिजन' पत्रिका के एक लेख में आरक्षण पर लिखा था कि, ‘धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। सरकारी मदद केवल उन्हीं लोगों को मिलनी चाहिए, जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो’।

बाबा साहेब आंबेडकर:- संविधान बनाते हुए बाबा साहेब ने कहा था कि 'आरक्षण बैसाखी नहीं बल्कि सहारा है, उन लोगों के लिए जो पिछड़े हुए हैं। लेकिन यह केवल 10 वर्षों के लिए होगा, जिसके बाद इसकी समीक्षा करनी होगी कि जिन्हे आरक्षण दिया गया, उनके जीवन स्तर में क्या बदलाव आया । 

जवाहर लाल नेहरू:- 26 मई 1949 को देश के प्रथम पीएम ने संसद में कहा था कि ‘यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उससे समाज में असंतुलन बढ़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी।’

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