SC-ST एक्ट: 'काले कानूनों' की खिलाफत करने वाले इस पर चुप क्यों ? नर्क कर चुका है कई लोगों का जीवन
SC-ST एक्ट: 'काले कानूनों' की खिलाफत करने वाले इस पर चुप क्यों ? नर्क कर चुका है कई लोगों का जीवन
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कानून, जनता की सुरक्षा के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन जब वही कानून लोगों को प्रताड़ित करने का जरिया बन जाएं तो ऐसे कानून को कूड़े में फेंक देना ही उचित है। मौजूदा समय में केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन चल रहा है, देश की राजधानी दिल्ली की सरहदों पर 100 से अधिक दिनों से किसान जमे हुए हैं और कानून वापस लेने की मांग कर रहे हैं। खैर, कृषि कानून तो अभी पूरी तरह से लागू भी नहीं हुआ है और इसी वजह से इसके कोई दुष्प्रभाव भी अभी तक सामने नहीं आए हैं और न ही किसी व्यक्ति ने यह दावा किया है कि इन कानूनों के चलते उसे नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन इनके कारण नुकसान होगा, किसान गुलाम बन जाएगा, उसकी जमीन चली जाएगी, इन आशंकाओं के मद्देनज़र कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की जा रही है और उसे व्यापक जनसमर्थन भी मिल रहा है। मिलना भी चाहिए, आखिर जो नियम-कायदे जनता के लिए हितकारी साबित न हों, उन्हें कानून की किताब से तो क्या, संविधान की किताब से भी हटा दिया जाना चाहिए। 

लेकिन जो कानून प्रभाव में हैं और जिनका गलत लाभ उठाकर, किसी व्यक्ति का जीवन ही बर्बाद कर दिया जाए तो उसे आप क्या कहेंगे। क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे कानून में बदलाव की आवश्यकता है ? दरअसल, आज हम बात कर रहे हैं अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 यानी SC/ST एक्ट की। जिसे बनाया तो गया था, SC/ST समुदाय के पीड़ित लोगों को तत्काल न्याय दिलवाने के लिए, किन्तु मौजूदा समय में इस कानून के दुरूपयोग के कई मामले सामने आ रहे हैं। जिसके झूठे मामलों में फंसकर कई लोगों का जीवन नरक समान हो चुका है। हम इसके कुछ उदाहरण आपके सामने रखें, उससे पहले आइए जानते हैं कि यह SC/ST एक्ट है क्या और कब अस्तित्व में आया।

दरअसल, 1950 में देश में संविधान तो लागू हो गया था, लेकिन अब भी देश का एक तबका अपने अधिकारों से वंचित था। यह वर्ग सामाजिक भेदभाव से बुरी तरह पीड़ित था। 1955 में ऐसे लोगों के लिए प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट लाया गया, लेकिन इसके बाद भी यह वर्ग छुआछूत, अत्याचार और भेदभाव का शिकार होता रहा। कई दिग्गज हस्तियों ने भी यह माना कि रसूखदार लोग इस वर्ग को डराने-धमकाने या दबा कर रखने की कोशिश करते हैं। इसलिए 1 सितम्बर 1989 में संसद द्वारा ऐसे लोगों की सुरक्षा के लिए SC/ST एक्ट पारित किया गया, 1990 में यह पूरे देश (जम्मू कश्मीर को छोड़कर) में लागू हो गया। 

SC/ST एक्ट के तहत ये थे नियम :-

- जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने पर फ़ौरन मामला दर्ज होगा 

- इसके तहत दर्ज होने वाले मामलों की जांच का अधिकार इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी के पास रहेगा

- केस दर्ज हो जाने की स्थिति में तुरंत गिरफ्तारी होगी

- एससी/एसटी मामलों की सुनवाई केवल स्पेशल कोर्ट में होगी

- केवल हाईकोर्ट को ही इस मामले में जमानत देने का अधिकार होगा

- अत्याचार से पीड़ित लोगों को पर्याप्त सुविधाएं और कानूनी मदद दी जाएगी 

- पीड़ित वर्ग को आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास का प्रबंध किया जाएगा

- सुनवाई के दौरान पीड़ितों और गवाहों की यात्रा और जरूरतों का खर्च सरकार मुहैया कराएगी 

लेकिन 2018 में इसके बढ़ते दुरूपयोग को देखते हुए देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस कानून में कुछ संशोधन किए थे, जैसे तत्काल गिरफ़्तारी पर रोक, जांच के बाद मुकदमा दर्ज करना आदि। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला इसलिए दिया था, ताकि किसी बेकसूर इस कड़े कानून के तहत फंसाकर व्यक्तिगत रंजिश न निकाली जाए और जो सच में दोषी हो, उस पर जांच के बाद मुकदमा दर्ज किया जाए। लेकिन, संविधान बचाओ, लोकतंत्र बचाओ का नारा लगाने वाली राजनितिक पार्टियों ने इस मुद्दे को इस तरह से तोड़मरोड़ कर उछाला कि कुछ ही समय में पूरे देश से हिंसा की लपटें उठने लगीं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए सरकार पर दबाव बनाते हुए देश भर के दलित संगठनों ने भारत बंद का आह्वान किया, जिसमे 11 लोगों की मौत हुई (यह सरकारी आंकड़ा है)। 

इसके बाद सरकार को मजबूर होकर सुप्रीम कोर्ट में फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करनी पड़ी। दबाव में आकर सरकार पहले अध्यादेश लेकर आई। बाद में सरकार द्वारा मॉनसून सत्र में SC/ST संशोधन विधेयक पेश किया। कांग्रेस समेत ज़्यादातर विपक्षी पार्टियों ने इस बिल का भरपूर समर्थन किया। संशोधित बिल में सरकार इस तरह के अपराध में प्राथमिकी दर्ज करने के प्रावधान को वापस लेकर आई थी।  सरकार ने माना कि केस दर्ज करने से पहले जांच जरूरी नहीं और ना ही गिरफ्तारी से पहले किसी की इजाजत लेनी होगी। अग्रिम जमानत का भी प्रावधान खत्म हो गया। मोदी सरकार की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला बदल लिया। कोर्ट ने सरकारी कर्मचारी और सामान्य नागरिक को गिरफ्तार करने से पहले अनुमति लेने की आवश्यकता को खत्म कर दिया। जिसके बाद से यह नियम वापस 1989 की तरह प्रभावी हो गया। लेकिन इसके गलत इस्तेमाल की ख़बरें लगातार आती रहीं 

गृह मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, वर्ष 2014 में अनुसूचित जाति (SC) के कुल 40300 मामले दर्ज किए गए, जिसमें 6144 मामले झूठे पाए गए। 

वर्ष 2014 में अनुसूचित जनजाति (ST) के कुल 6826 मामले दर्ज किए गए, जिसमें 1265 मामले झूठे साबित हुए।

2015 में इसके तहत कुल 38564 मामले दर्ज हुए, जिसमें 5866 मामले झूठे निकले।  वहीं, अनुसूचित जनजाति से जुड़े कुल 6275 मामले वर्ष 2015 में दर्ज हुए, जिसमें 1177 मामले झूठे निकले।

2016 में अनुसूचित जाति के कुल 40774 मामले दर्ज हुए, जिसमें 5344 मामले झूठे पाए गए। वहीं, 2016 में अनुसूचित जनजाति के कुल 6564 केस दर्ज हुए, जिसमें 912 मामले झूठे निकले। 

क्या आपने कभी सोचा है कि इस कानून के तहत इन झूठे मामलों में फंसकर किसी व्यक्ति या उसके परिवार को कितने कष्ट उठाने पड़ते होंगे। आज हम आपको ऐसे 3 मामलों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसमे फंसकर लोगों का जीवन ही बर्बाद हो गया। 

1- झूठे मामले में विष्णु तिवारी ने जेल में काटे 20 साल, माता-पिता और दोनों भाई मर गए, लेकिन बाहर न आ सके 

उत्तर प्रदेश के ललितपुर के एक गांव में रहने वाले विष्णु तिवारी को 20 वर्षों तक उस अपराध की सजा जेल में काटनी पड़ी, जो उसने किया ही नहीं था. 20 साल बाद उच्च न्यायालय द्वारा विष्णु तिवारी को दुष्कर्म और एससी/एसटी एक्ट के मामले में मिली आजीवन कारावास की सजा में निर्दोष ठहराते हुए रिहाई का आदेश दिया गया. इसके बाद विष्णु तिवारी आगरा जेल से रिहा होकर अपने घर पर आ गया है. विष्णु का कहना है कि इन 20 वर्षों में उसने अपना सबकुछ खो दिया. अब सरकार ने सहायता नहीं की, तो हमें तो ख़ुदकुशी ही करना पड़ेगी.

आगरा जेल से रिहा होकर विष्णु तिवारी बुधवार रात अपने घर ललितपुर पहुंचा. कई वर्षों बाद अपने घर पहुंचे विष्णु ने मीडिया से बात की. बातचीत के दौरान विष्णु ने 20 वर्षों के दुख भरे दिनों की कहानी बताई, जो उसने बिना किसी अपराध के ही जेल में गुजारे थे. विष्णु तिवारी ने बताया कि जेल की सजा के दौरान उसके परिवार में चार लोगों की मौतें हो गईं. पहले उसके माता-पिता की मौत हुई और बाद में इसी सदमे में दो भाइयों ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया. किन्तु उसे किसी के भी अंतिम कार्यक्रम में जाने नहीं दिया गया.  उसे जेल से एक फोन तक नहीं करने दिया जाता था.

अब उच्च न्यायालय ने विष्णु तिवारी को बेकसूर मानते हुए बरी कर दिया है. इसके साथ ही ऐसे मामलों में शीघ्र सुनवाई करने के भी सख्त निर्देश दिए हैं. अपना सबकुछ खो चुके विष्णु तिवारी को सरकार से अब यही आस है कि सरकार उसे आगे का जीवन बिताने के लिए कुछ सहायता करे. विष्णु तिवारी ने कहा कि हमें तो यहां बहुत अजनबी सा लग रहा है. मेरा तो सबकुछ लुट गया, कुछ नहीं बचा है. मेरे पास न जमीन है, न ही मकान है. जो हुनर था हाथों में वो भी अब ख़त्म हो चुका है. किराए पर रह रहे हैं. सरकार से हाथ जोड़कर विनती है कि आगे की जिंदगी के लिए कुछ सहायता करे, नहीं तो हमें तो ख़ुदकुशी ही करना पड़ेगी. निर्दोष होकर घर आ गए यही खुशी है. यही हमें दुनिया को दिखाना था, कि हमने कुछ किया नहीं है. मुझे तो लगने लगा था कि हम यहीं जेल में मर जाएंगे.

विष्णु तिवारी ने कहा कि पशुओं को लेकर एक मामूली कहासुनी हुई थी. जिसके बाद दूसरे पक्ष ने थाने में शिकायत की थी. थाने में तीन दिन प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई, तो राजनीतिक दबाव डलवाकर SC-ST एक्ट के तहत केस दर्ज करवा दिया गया था. पुलिस जांच से संबंधित सवाल पर विष्णु तिवारी ने कहा कि हम तो अनपढ़ आदमी थे. हमें न पुलिस जांच का पता चला. न ये पता था कि वकील कौन है. क्या हो रहा है. कैसे सजा दी. कुछ भी पता नहीं चला. 

2- खुद ही किया अपने बच्चे का क़त्ल, सरकार से वसूल लिए चार लाख साढ़े बाईस हजार रुपए 

यह मामला, उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के अंतर्गत आने वाले भैराइ गाँव का है। यहां 6 साल के एक बच्चे प्रिंस की हत्या हुई थी, जिसका आरोप मृतक बच्चे की माँ ने गांव के ही ब्राह्मण परिवार के 5 लोगों पर लगाया था। इस मामले में जांच होने से पहले मृत बालक की मां ने एससी-एसटी एक्ट के प्रावधानों के तहत चार लाख साढ़े बाईस हजार रुपये की पहली किस्त भी ले ली थी। वहीं पुलिस ने भी एक अभियुक्त बच्चू को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। इस बीच सामाजिक उलाहना सह रहे अभियुक्त के परिवार ने SSP मथुरा से मिलकर बताया कि इस हत्या में गलत नामजदगी की गई है। गहन जांच के बाद मथुरा पुलिस ने खुलासा किया कि मां गुड्डी देवी ने ही अपने देवर आकाश के साथ मिलकर अपने बच्चे प्रिंस को मौत के घाट उतारा था और उसकी लाश कुएं में फेंक दी थी।

दरअसल, गुड्डी देवी और देवर आकाश के बीच नाज़ायज़ संबंध थे, इसी के चलते बच्चे की हत्या की गई थी। लेकिन आरोप लगा दिया गया इस कानून का फायदा उठाते हुए निर्दोष परिवार पर। यहां एक बात और ध्यान देने वाली है इसके कुछ समय पहले गुड्डी देवी के पति सुभाष की भी हत्या की गई थी। जिसका आरोप गुड्डी देवी ने गाँव के मुकेश पंडित पर लगाया था। पुलिस ने SC/ST एक्ट के तहत मामला दर्ज करते हुए मुकेश पंडित को जेल में डाल दिया और गुड्डी देवी को इसी कानून के तहत मुआवज़े के 8 लाख मिले। अब आप खुद सोच सकते हैं कि अगर गुड्डी देवी और आकाश अपने नाज़ायज़ संबंधों के चलते मासूम प्रिंस की हत्या कर सकते हैं तो क्या उन्होंने सुभाष के क़त्ल की योजना नहीं बनाई होगी ? लेकिन सुभाष की हत्या में मुकेश पंडित को जेल मिली और गुड्डी देवी को मुआवज़ा। 

3- SC/ST एक्ट के तहत केस दर्ज कराकर मुआवज़ा कमाने को बना लिया पेशा 

यह सनसनीखेज मामला उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ का है। यहां एक दलित परिवार ने इस कानून के तहत मामला दर्ज कराने और उससे  मुआवज़ा वसूल करने को ही अपना पेशा बना लिया। 2010 में विष्णु की तरफ से मारपीट और एससी/एसटी ऐक्ट के तहत इगलास कोतवाली में केस दर्ज कराया गया था। विष्णु की पत्नी रूबी ने इसकी शिकायत एससी-एसटी आयोग में भी की थी। एक साल के अंदर  विष्णु ने जमीन विवाद को लेकर एससी/एसटी एक्ट के करीब 10 मामले में उनके परिवार और संबंधियों के खिलाफ केस दर्ज करा दिए और सबमे मुआवज़ा भी वसूला। पुलिस को पता था कि विष्णु का परिवार केवल मुआवज़े के लिए यह केस दर्ज करवा रहा है, इसलिए पुलिस ने अधिक केस दर्ज करने से मना कर दिया, जिसके बाद विष्णु की पत्नी एससी-एसटी आयोग पहुँच गई और आयोग ने स्थानीय डीएम व एसएसपी को तलब कर लिया। तत्कालीन डीएम हृषिकेश भास्कर यशोद व एसएसपी राजेश कुमार पांडेय ने इस संबंध में आयोग को अवगत कराया कि 'विष्णु अब तक आरोपित परिवार पर 10 केस दर्ज करवा चुका है, जिसके एवज में उसे 3 लाख से अधिक का मुआवज़ा भी मिला है, ऐसे में विष्णु द्वारा किए जा रहे इस कानून के दुरूपयोग को नकारा नहीं जा सकता।' वहीं आरोपित परिवार इन मामलों में हर बार पुलिस थाने के चक्कर काटता रहा और सामाजिक उलाहना का शिकार होता रहा। 


निष्कर्ष:- ऐसा बिल्कुल नहीं है कि देश में जातिगत भेदभाव पूरी तरह ख़त्म हो चुका है, आज भी कई ग्रामीण हिस्सों में दलित समुदाय प्रताड़ना का शिकार होता है। लेकिन एक समुदाय को न्याय देने का ये अर्थ कदापि नहीं होता कि दूसरे के साथ नाइंसाफी कर दी जाए।  जो पीड़ित हो उसे अवश्य न्याय मिले और जो दोषी हो उसे सजा। लेकिन कोई भी बेकसूर इस कानून की भेंट न चढ़े, इसलिए इसमें संशोधन किए जाने की आवश्यकता है। क्योंकि, हमारे देश में जिस कानून-व्यवस्था की स्थापना की गई थी, वो एक उच्च आदर्शों पर स्थापित व्यवस्था थी । जिसका उद्देश्य था कि चाहे सौ दोषी छूट जाये, किन्तु किसी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिये । इसलिये एक अन्धी कानून-व्यवस्था की स्थापना की गई, जो आरोपी की धर्म-जाति, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी देखे बिना उसे सजा दे सकें और सभी को बिना किसी भेदभाव के न्याय दे सके। 

जय हिन्द
जय भारत। 

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