राहुल गाँधी के भाषणों की 11 मूर्खतापूर्ण बातों का कच्चा चिट्ठा
राहुल गाँधी के भाषणों की 11 मूर्खतापूर्ण बातों का कच्चा चिट्ठा
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कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी इन दिनों विपक्ष का सबसे प्रमुख चेहरा बनने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।  इस कोशिश में पिछले दो माह से वे जो भी भाषण दे रहे हैं, उनमें वे गीनी-चुनी बातों, नारों व संवादों को क्रम बदल-बदल कर दोहरा रहे हैं। उनमेँ न तो तत्कालीन न सर्वकालीन मुद्दों की समझ है, न किसी विषय पर अध्ययन, न कोई गहरी सोच। इन भाषणों में वे ऐसी-ऐसी उथली या नादानी वाली गलतियां कर रहे हैं, कि जिन्हें सुनकर आश्चर्य होता है कि कांग्रेस के भी परिपक्व व सुविज्ञ लोग उन्हें ठीक करने के लिए नहीं कह रहे हैं या दोहराने से भी नहीं रोक रहे हैं। ऐसी कुछ गलतियों का कच्चा चिट्ठा यहाँ पेश है :

1) वे अपने हर भाषण में कह रहे हैं कि बैंकों के सामने लाइनों में सभी गरीब, मेहनतकश व ईमानदार लोग खड़े हैं (यहाँ अब उन्हें 'खड़े थे' कहना चाहिये) कही कोई काले धन वाला अमीर आदमी नहीं खड़ा है। अब तो वे यह भी दावा कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री 'विमुद्रीकरण' की अवधारणा को समझते नहीं है; जबकि उनकी यह बात यह साबित करती है कि वे खुद इस विषय का क-ख-ग भी नहीं समझते हैं।  'विमुद्रीकरण' जिसे आमतौर पर नोट-बंदी का गलत नाम दे दिया गया है, उसे मूलतः इसी कारण काले धन को अर्थ-व्यवस्था से बाहर करने वाली तरकीब माना जाता है, क्योंकि इस तरह जब सभी लोगों को बड़े नोटों को बदलाने के लिए कहा जाता है, तो जिनके पास ईमानदारी का या सफ़ेद धन होता है, वे लोग ही अपनी वाजिब कमाई को बैंक में जमा करा सकते हैं या नयी करेंसी से बदला सकते हैं। किन्तु, कालेधन वालों का धन इसिलिये काला होता है क्योंकि उन्होंने उसे 'अपनी कमाई' के रूप में घोषित नहीं किया होता है, और जब उन्हें वह धन एक बार बैंक में जमा कराना जरुरी बना दिया जाता है तो वे अपना झूठ छुपाने के लिए वह काली कमाई जमा कराने की हिम्मत नहीं करते है। कम से कम खुद तो बैंक में नहीं जाते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि जो लोग लाइनों में खड़े थे वे आम सफ़ेद धन वाले लोग थे या कुछ थोड़े से गरीब लोग जिन्हें काले धन वालों ने लालच देकर अपना काला पैसा जमा कराने के लिए दिया था।  अब इस बात को जो नहीं समझता है, वह विमुद्रीकरण व उसके लाभों को कैसे समझ सकता है। खेदजनक है कि ऐसे नासमझ नेताओं में राहुल ही नहीं अन्य कई और विपक्षी नेता भी हैं, जिन्होंने भी इसी प्रकार की टिप्पणियां की है। उससे अधिक खेदजनक व हास्यास्पद यह है कि ऐसे नादान- नासमझ नेता सार्वजनिक मंचो से ऐसी बात करते हुए खुद को समझदार और असल समझदारों को नासमझ बता रहे है। 

2) राहुल की दूसरी गलती ऐसी है कि जो उनके सामान्य गणित के ज्ञान पर ही प्रश्नचिह्न लगाती है, वे इन दिनों अपने सभी भाषणों में यह दोहरा रहे है कि "सभीको मालुम है कि देश के केवल 50 परिवारों के पास काल धन है"; फिर अगले ही वाक्य में कहते है कि "केवल 1% लोगों के पास कालाधन है"। अब यह तो सामान्य ज्ञान व सामान्य गणित की बात है कि यदि 50 परिवार कहेंगे तो उसका मतलब होगा कि अधिक से अधिक 500 लोग, जबकि यदि आबादी के 1% को देखेंगे तो मतलब होगा कि 130 करोड़ के 1% का मतलब है 1 करोड़ 30 लाख लोग। अब बताइये इसे आप क्या कहेंगे? पहले तो 4 - 5 बार जब यह सुना तो मैंने भी सोचा कि वे दो अलग-अलग वाक्यों में दो अलग बात कह रहे हैं, पर जब उन्हें 'जन-वेदना सम्मलेन' के भाषण में फिर यही साफ़-साफ़ कहते सुना, तो स्पष्ट हो गया कि उन्हें 50 परिवार और 1% लोगों के बीच कितना बड़ा संख्यात्मक अंतर है यह समझ ही नहीं आता है।

वैसे कालेधन की शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार विशेषज्ञों का तो यह अनुमान है कि यदि केवल 2 लाख से अधिक काला धन रखने वालो की सही गणना की जाए तो मालूम होगा कि उनकी संख्या आबादी के लगभग 3% के बराबर है यानि करीब चार करोड़। नोटबंदी के बाद सामने आये तथ्यों से भी यही बात प्रमाणित होती है। इसलिए जो व्यक्ति केवल 50 परिवारों को ही काले धन वाला बता रहा है, उसका इस विशाल देश के बारे में सामान्य ज्ञान भी बहुत कमजोर है। 

3) अब ये युवराज राहुल पूछते है कि "प्रधानमंत्री बताये कि कितना काला धन आया?" पहली बात तो यह प्रश्न ही गलत है, क्योंकि अपेक्षा के अनुसार तो जो आना चाहिए था वह अधिकांशतः सफ़ेद धन होना था और जो कालाधन है वह बैंकों में आना ही नहीं चाहिए था, बेकार हो जाना था। किन्तु सरकार की अपेक्षानुसार नहीं हुआ और सफ़ेद के साथ बहुत सा काला धन भी जमा हो गया। इसलिए विपक्ष के नाते उनका यह हक़ था कि वे पूछते कि बताइये कि "कितना काला धन वापिस नहीं आया? यानि बैंकों में जमा नहीं हुआ?" यह आलोचना के लिए भी अच्छा प्रश्न होता, क्योकि इस मामले में सरकार अपनी सोची हुई योजना में कुछ कम सफल हुई है, और चालाक काले कुबेरों ने अपना काला धन भी किसी न किसी तरह से बैंको में पहुंचा दिया है। उन्होंने कई निम्न व माध्यम वर्ग के लोगो को लालच देकर उनके खातों में अपना काला धन जमा करवा दिया, या भ्रष्ट बैंक वालों से मिलकर बदलवा लिया।

हालांकि, उन 50 दिनों में जमा हुए करीब 15 लाख करोड़ रुपयों में से अब लगभग 4 लाख करोड़ रुपयों को जांच एजेंसियों ने संदिग्ध पाया है और उनकी जांच होगी तो उसमें बड़ी मात्रा में ऐसे गलत तरीको से जमा हुए काले धन के बारे में पता लगेगा। इसलिए जो लोग केवल इस आधार पर नोटबंदी के इस बड़े प्रयास को असफल बता रहे हैं कि "अरे, जब अधिकांश नकदी बैंको में आ गया तो काला धन तो सफ़ेद हो गया।" वे भी सरासर गलत है एक तो वे आतंकवाद, नक्सलवाद, कश्मीर की अराजकता, हवाला, कालाबाजारी व अन्य अपराधों के मामलों में जो सफलता मिली है, वे उसे नजर-अंदाज कर रहे है। दूसरे, यह तो सही है कि सरकार ने जितना सोचा था उतना कालाधन बाहर तो नहीं हुआ, पर अब भी बहुत सा कालाधन इन संदिग्ध खातों के जरिये जांच करने पर काले कुबेरों सहित पकड़ा जाएगा। जबकि यदि योजना के अनुसार चलता तो अधिक कालाधन बाहर तो होता पर काले कुबेर बेदाग़ बच जाते। इसलिए काले धन के मामले में भी विमुद्रीकरण को असफल नहीं कहा जा सकता है। अब 'कितना कालाधन पकड़ा जा सकेगा ?' यह तो उन सभी अरबों संदिग्ध खातों की जांच व धर-पकड़ के बाद ही कहा जा सकेगा। 

4) अब उपरोक्त बातों को समझने के बाद यदि आप फिर से राहुल गाँधी के भाषण को सुनेंगे तो आपको समझ में आ जायेगा कि राहुल गाँधी आलोचना करते-करते कितने ओछे और उल्टे चश्मे वाले आरोप लगा रहे हैं। वे कहते हैं 'प्रधानमंत्री गरीबों से पैसा खिंच रहे है और उनका नारा है- गरीबों से खींचों, अमीरों को सींचो' या फिर गाना याद दिलाते है 'राम नाम जपना, गरीब का माल अपना' आदि, आदि। ऐसी बातों का भाव तो यह है कि प्रधानमन्त्री बिलकुल लालची, स्वार्थी, ठग व लुटेरे व्यक्ति हैं। अब यदि कोई सोचे-समझे तो स्पष्ट जान सकता है कि प्रधानमंत्री ने बहुत साहस करके नोटबंदी का ऐसा कदम उठाया था, जिससे उनका पूरा राजनैतिक भविष्य ख़त्म हो सकता था और वे देश की ही नहीं खुद की पार्टी की नजर में भी खलनायक बन सकते थे। देशहित को समझकर कोई भी स्वार्थी व्यक्ति इतना बड़ा खतरा मौल नहीं ले सकता था ।... और, एक स्वार्थी व्यक्ति यदि प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर पहुँच चूका हो, तो उसके लिए अपने कोई भी स्वार्थ सिद्ध करने के अन्य कई सुरक्षित रास्ते थे, उसे ऐसा खतरनाक कदम उठाने की जरुरत ही क्या थी ? खुद के भविष्य व प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने वाले व्यक्ति के लिये भ्रष्ट कांग्रेस के युवराज ऐसे आरोप लगा रहे है । क्या ऐसे आरोप लगाने वाला खुद जरा भी सम्मान के लायक है?

5) अब उस महामूर्खतापूर्ण बात की बात कर लें, जिस बात को राहुल गांधी ने उस सम्मलेन में 14 बार दोहराया यानी 'डरो मत', उसका औचित्य भी जरा देखिये। वास्तविकता में देश में कहीं भी, कोई भी इस मोदी सरकार से डरता हुआ नजर आता है क्या? आज तो प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ही नहीं सोशल मीडिया पर भी हर कोई सरकार के खिलाफ चाहे जो बेधड़क लिख रहा है। सैनिक व अर्ध-सैनिक बलों के लोगों द्वारा ऐसी शिकायते सार्वजनिक करने का काम पहले कभी नहीं हुआ था वह भी अब हो रहा है। कुछ सिरफिरे तो JNU में सभा करके देश-विरोधी नारे तक लगा रहे है, पर उनपर भी केवल क़ानूनी प्रक्रिया अनुसार ही कार्यवाही हो रही है। अब ऐसे में ये नादान युवराज किन्हें कह रहे है की 'डरो मत'। इस सरकार से तो केवल भ्रष्ट, बेईमान व गद्दार लोग डर रहे है, तो क्या राहुल यह नारा उन्हें निडर बनाने के लिए लगा रहे हैं।

6) राहुल गांधी ने यह भी कहा कि इस समय देश की आर्थिक हालत बहूत खराब है। जबकि वास्तविकता यह है कि विकास दर में मामूली कमी के बावजूद अब भी भारत दुनिया के बड़े देशों में से सबसे तेज विकास दर वाला देश है। विदेशी निवेश के लिहाज से तो पहले नंबर पर है। लेकिन राहुल गांधी जाने कैसे अनगढ़ अर्ध-सत्यों पर जीने वालों से अपना भाषण लिखवा रहे है कि वे सुनहली धूप को घुप्प अँधेरा बता रहे हैं। वैसे तो सभी समझदार लोग अपनी आर्थिक स्थिति यदि कुछ ठीक नहीं भी हो, तो दुनिया को उसे अच्छी ही बताते है। उन्हें यह भी याद दिलाना होगा कि सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत की सबसे बुरी आर्थिक स्थिति तब थी, जब कांग्रेसी शासन के दौरान, 1991 में देश का सोना विश्व बैंक के पास गिरवी रखना पड़ा था।

7) राहुल गाँधी का एक आरोप यह भी था कि मोदीजी ने RBI की स्वतंत्रता का हनन किया और उसका 'सबसे बड़ा अपमान' किया, क्योंकि उन्होंने RBI की सहमति लिए व उसे समय दिए बिना ही खुद अकेले निर्णय लेकर यह घोषणा की। जबकि यह पूरा सच नहीं है, माना कि प्रधानमन्त्री ने पूरी प्रक्रिया को बहुत जल्दी-जल्दी किया, लेकिन प्रक्रिया को पूरा किया तो था । उन्होंने घोषणा से एक दिन पहले 7 नवम्बर को RBI के संचालकों के साथ तीन घंटे की विस्तृत चर्चा की और उनकी सहमति ली व तैयारियों की जानकारी भी ली। इस निर्णय को शीघ्रता से लेने व गुप्त रखने की अनिवार्यता के कारण उन्होंने ऐसा किया तो इसे RBI का अपमान नहीं कहा जा सकता है। उन्हें शायद किसी ने बताया नहीं कि पहले उनके पिता राजीव गाँधी ने इससे बहुत अधिक बड़ा अपमान RBI का किया था और उसके तत्कालीन गवर्नर खुद मनमोहन सिंह को जोकर कहा था।

8) इसीके साथ राहुल ने यह भी जोड़ा कि मोदीजी ने सभी संवैधानिक संस्थाओं का भी अपमान किया व उन्हें ध्वस्त किया है। क्या उन्हें याद नहीं है कि, जब उन्होंने भरी प्रेस कांफ्रेंस में मनमोहन सरकार द्वारा पास अध्यादेश को सस्ती लोकप्रियता के लिए अचानक फाड़ दिया था और मीडिया के सामने अपनी इस अटपटी हरकत के औचित्य को जरा भी जंचा नहीं पाये थे । 'वह अध्यादेश गलत था' यह बताने के उनके पास कई शालीन तरीके हो सकतेथे पर उन्होंने अपनी उस अजीब हरकत से न केवल पुरे मंत्रिमंडल व प्रधानमंत्री का बल्कि संविधान का भी अपमान किया था । उनके पिता व दादी के भी कई उदहारण है, जब उन्होंने संवैधानिक संस्थाओं का अपमान किया और संस्थाओ को ‘ध्वस्त या ख़त्म करना’ तो केवल उसे ही कहा जा सकता है, जो कि उनकी दादी ने अनावश्यक आपातकाल लगा कर किया था।

9) राहुल ने अपने जन-वेदना सम्मेलन में प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले किये, जिनका राष्ट्रिय या राजनैतिक मुद्दों से कोई सरोकार भी नहीं था। इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने मोदी सरकार की नई योजनाओं, जैसे स्वच्छ भारत, स्टार्ट-अप इंडिया, आदि, आदि का केवल नाम ले-लेकर हंसी उड़ाने का छिछोरा प्रयास किया, बगैर ऐसा कुछ बताये कि उनमें बुराई या खामी क्या है। आलोचना और नीचा दिखने की धुन में उन्हें प्रधानमन्त्री के पद की गरिमा का ख्याल नहीं था, यह तो उनके सन्दर्भ में आज आदर्शवादी बात कही जाएगी, किन्तु उन्हें खुद के पद और जिस मंच से बोल रहे थे, उसकी गरिमा का ख्याल भी नहीं था, इस पर तो खुद सोनिया व कांग्रेस को भी अफ़सोस होना चाहिए। यदि तथ्यों व तर्कों के आधार पर वे उन योजनाओं की आलोचना करते तो वह एक प्रमुख विपक्षी दल के नेता के पद के अनुरूप बात होती। जबकि, सच तो यह है कि वे जिन योजनाओं की वे हंसी उड़ा रहे थे, वे सभी आम तौर पर सफल, लोकप्रिय और विशेषज्ञों द्वारा प्रशंशित हैं।

10) एक और मूर्खतापूर्ण बात उन्होंने यह की, कि “मोदीजी योग कर रहे थे तो मैंने ध्यान से नोट किया था कि वे पद्मासन नहीं लगा पाये थे”। फिर खुद ही कहा कि ‘मैं योग में सब कुछ नहीं जानता हूँ, कुछ-कुछ करता हूँ।‘ अब राहुल गाँधी क्या व कितना योग जानते है यह तो उनकी इसी बात से पता लग जाता है, जब वे कहते है कि योग के किसी जानकार ने उन्हें बताया है कि 'जो भी योग करता है वह पद्मासन लगा सकता है' । मैं स्वयं (लेखक) भी पिछले 34 वर्षो से अधिक समय से योग करता हूँ और उसके बारे में अध्ययन भी किया है। मैं पहले पद्मासन लगाता था, किन्तु एक दुर्घटना के बाद से अब नहीं लगा पाता हूँ। इससे न तो मेरा योग ज्ञान काम हुआ है न उसका कोई लाभ। योग का कोई भी एक आसान ऐसा नहीं है जिसके बिना योग को अधूरा कहा जाये। मतलब साफ़ है कि किसी अल्पज्ञ व्यक्ति ने ही राहुल को ऐसी बेतुकी बात बताई होगी और स्वाभाविक है, कि उस अल्पज्ञ व्यक्ति से राहुल का ज्ञान तो और भी अल्प है। लेकिन यहाँ बड़ा मुद्दा राहुल के अल्प -ज्ञान का नहीं, उस नासमझी का है जिसमें वे यह नहीं समझ पाये कि प्रधानमन्त्री योग-दिवस के ऐतहासिक अवसर पर वहां अपनी योग पर मास्टरी प्रदर्शित करने के लिए योग नहीं कर रहे थे, वे तो देश की उस गौरवमय उपलब्धि के अवसर को तथा योग की महान विद्या को सम्मान देने के लिए वहां सबके साथ खुद योग कर रहे थे।

11) वैसे तो राहुल गाँधी की अल्प-समझ के प्रमाण व मूर्खताये और भी गिनाने को है, पर अब कलम को विराम देने के लिए बस एक और डायलॉग का जिक्र कर लें, जिसे भी युवराज राहुल सभी भाषणों में दोहरा रहे हैं। कह रहे है कि "मोदीजी ने पुरे देश पर एटम बम से ज्यादा खतरनाक फायर बम डाला है", इस डायलाग का पूरा लंबा सन्दर्भ बताते हुए वे कहना चाह रहे है, कि जैसे नोटबंदी से सब तरफ आग लगी हो, तबाही हो गई हो। "अरे, इस देश के चरित्र से अनजान कोरे 'मिट्टी के माधो' तुमने क्या हम सब भारतीयों को इतना घुग्घु समझ रखा है, कि ऐसा कुछ होता और हम सब फिर भी सरकार का साथ देते? हम भारतीय अनपढो, गरीबों सहित जैसे भी है, अपने अस्तित्व व आज़ादी के लिए, उठ खड़े होना जानते हैं। इसके प्रमाण हम जेपी के आंदोलन में, लोकपाल की मांग के लिए और निर्भया कांड के बाद उठे जन-आंदोलनों के रूप में दे चुके है।"

असल में तो आम सफ़ेद कमाई वाले लोगों को 50 दिन तक कुछ कठिनाइयां उठाना व कुछ खर्च में कटौती करना, इतनी बड़ी आफत लगी ही नहीं, जितनी उसे राहुल व अन्य फिजूल नाटक करने वाले विपक्षी नेता महा-संकट दिखाना चाह रहे है। उन्होंने उम्मीदों व विश्वास के कारण ही मोदीजी का साथ दिया है, और यदि ये उम्मीदे पूरी नहीं हुई और विश्वास टूटा, तो वे इस मोदी-सरकार को गिराने में भी देर नहीं करेंगे। पर राहुल जैसे लोग जनता को अब भी इतना भोला समझ रहे हैं कि यदि उसे किसी मशाल जलाने के काम को 'फायर बम फेंकना' बताया जाए तो भी वह मान लेगी।                     

देश के लिए सर्वाधिक अफ़सोस की बात यह है कि, इतनी मूर्खतापूर्ण बाते करने वाले को हमारी सबसे प्रमुख विपक्षी पार्टी ने अपना नेता बना रखा है और वह यह भी समझ नहीं पा रही है, कि उसके खुद के भविष्य के लिए, इस अनगढ़ नेता का बोझ उतारना कितना जरुरी है।

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