बिहार में जातीय गोलबंदी में जुटे सियासी दल
बिहार में जातीय गोलबंदी में जुटे सियासी दल
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बिहार विधानसभा चुनाव की दस्तक के साथ ही सभी राजनीतिक दल जातीय समीकरण चुस्त करने में जोरो शोरो से लग गए है. दलित-महादलित के मामले पर बिहार की राजनीति पहले ही गरमा रही है, अब अन्य जातियों को भी लामबंद करने की कवायद शुरू हो गयी है. सभी दल जहां विभिन्न जातियों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाने व नेताओं को अपनी तरफ लुभाने के प्रयत्न्न में लगे हुए है  वहीं जाति-सम्मेलनों का प्रचलन भी दिखने लगा है. 

बिहार में चुनाव का आधार हमेशा से जातीय रहा है. वर्ष 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में हालांकि जाति-कार्ड की अपेक्षा विकास को मुख्य मुद्दा बनाया था, बिहार के लोग जातीय भावना से ऊपर उठकर सोचने लगे है, लेकिन वर्ष 2015  में फिर से सभी पार्टिया जातीय समीकरण बनाने के प्रयास में जुट गए है.

इस बीच, राज्य सरकार ने तेली, बढ़ई और चौरसिया जाति को अति पिछड़ा वर्ग में तथा लोहार जाति को अनुसूचित जाति में समिल्लित करने का निर्णय लिया है. सरकार के इस निर्णय का आधार भी जाति-साधना माना जा रहा है.

मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उपाध्यक्ष संजय मयूख ने प्रश्न खड़ा किया , "आखिर सरकार को आज तेली, बढ़ई और लोहार अचानक क्यों याद आ गए है ?" उनका आरोप है कि जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रारम्भ से ही जाति की राजनीति करते आ रहे हैं.

पटना में कुछ समय पूर्व जब चौरसिया सम्मेलन का आयोजन किया गया तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उसमें  मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थिति दर्ज करवाई . इसके अतिरिक्त प्रजापति सम्मेलन में लालू प्रसाद शामिल हुए थे और उन्होंने अपने अंदाज में समाज के नेताओं को लुभाने का प्रयत्न्न किया. इसके पहले तेली महासम्मेलन, कुर्मी सम्मेलन, गोस्वामी महासभा का आयोजन भी किया जा चूका है, अब कायस्थ सम्मेलन का आयोजन होने वाला है.

वही, भाजपा ने सबसे पहले महादलित नेता जीतनराम मांझी को अपनी तरफ कर लिया है, जबकि दलित नेता रामविलास पासवान इधर डेढ़ वर्षो से उनके सहयोगी रहे है.एक प्रकार से  भाजपा ने पूरे दलित वोट को अपनी झोली में डालने का प्रयत्न्न किया है. भाजपा को यकीन है कि भूमिहार नेता गिरिराज सिंह और राजपूत नेता राधामोहन सिंह के केंद्रीय मंत्रिमंडल में होने का लाभ उसे इस चुनाव में अवश्य मिलेगा.
भाजपा नेताओं को यह आशा भी है कि उपेंद्र कुशवाहा के राजग में होने की वजह से  लव-कुश (कुर्मी और कोइरी यानी कुशवाहा) जाति के वोट भी अपने कब्जे में ले लेगा.  

वैसे, इन जातियों के आठ प्रतिशत वोटों पर पिछले चुनाव तक नीतीश कुमार की झोली में माने जाते थे, परंतु कुशवाहा के अलग दल बना लेने से कुछ वोट कटने की आशंका जदयू को भी है. उपेंद्र ने राजग के सामने मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने की सशक्त दावेदारी दी है.

जदयू के प्रवक्ता संजय सिंह का कहना है कि नीतीश कुमार बिहार के विकास के पर्याय है. उन्होंने कभी जात-पात की राजनीति का दाव नहीं खेला है. उनका दावा है कि नीतीश के सहयोगी सभी जातियों के है.

दूसरी तरफ, सांसद पप्पू यादव भी अलग पार्टी बनाकर 'यादव नेता' बनने का जतन कर रहे है. पप्पू का प्रभाव वैसे तो पूरे कोसी क्षेत्र में माना जाता है, लेकिन तीन जिले- पूर्णिया, सहरसा और मधेपुरा में उसका एकछत्र राज माना जाता है. बिहार में लालू प्रसाद की यादवों और मुस्लिम वोटरों के बीच खास पकड़ मानी जाती है.आज बिहार में विभिन्न दलों के नेता जिस वोट बैंक को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित हैं, वह है यादवों का वोट.

एक समय, लालू के आगे यादव समाज का कोई नेता टिक नहीं पाता है. लेकिन जब से लालू की पत्नी विधानसभा और बेटी लोकसभा चुनाव नहीं जीत पायी थी , तब से उनके नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.

कभी लालू के 'हनुमान' के नाम से पहचाने जाने वाले रामपाल यादव अब भाजपा की झोली में है. लालू के साले साधु यादव खुद की पार्टी बनाकर अलग मोर्चा तैयार करने के प्रयास कर रहे है. कभी लालू के प्यारे रहे पप्पू यादव फिर से अपनी पार्टी का गठन कर चुके है.

जदयू में शरद यादव से लेकर विजेंद्र यादव और नरेंद्र नारायण यादव जैसे नेता हैं. कभी लालू के दाहिना हाथ माने जाने वाले यादव लालू का साथ छोड़कर अभी तक जदयू का हाथ थामे हुए है, लेकिन अब वह वहां से अलग हो चुके है. कहा जाता है कि पप्पू यादव यादवों जितने वोट काटेंगे, वह राजद की झोली में जायेगे.

आंकड़ों पर ध्यान दे तो लालू-राबड़ी के कार्यकाल में बिहार की राजनीति पर यादवों का साम्राज्य बना हुआ था. लालू जब पहली बार वर्ष 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब बिहार में यादव विधायकों की संख्या 63 थी. लालू जब राजनीति के शीर्ष पर थे, तब 1995 में संख्या में वृद्धि होकर 86 हो गई.
वर्ष 2000 में यादव विधायकों की संख्या 64 थी, जबकि 2005 के बाद ये आंकड़ा कम हो गया. वर्ष 2005 में 54 और 2010 में महज 39 यादव नेता ही विधायक के कुर्सी पर विराजमान हो पाये. वर्तमान समय में 39 विधायक यादव जाति के हैं, उनमें से 19 जदयू और 10 भाजपा के हैं.

वैसे  ऐसा नहीं कि भाजपा एक मजबूत दल है. बिहार में नीतीश को टक्कर दे पाये ऐसा कोई चेहरा भाजपा के पास नहीं है. यही कारण है कि राजद-जदयू गठबंधन ने आसन्न विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश की मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषणा कर दी है, लेकिन भाजपा अभी तक अपने किसी नेता को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में सामने लाने में असमर्थ है. हालांकि डॉ. सी.पी. ठाकुर सहित भाजपा के कई नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदारी की बात कर चुके है.

मुक्ता भावसार

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