मीडिया मचाये शोर, TRP आने दो और
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मीडिया एक ऐसा स्त्रोत जिसके ऊपर आज हर कोई आश्रित है. उम्मीद है की जो भी वह लोगो के सामने परोसता है वह उचित हो. लेकिन व्यवसायीकरण के इस दौर के बीच आ गई टीआरपी. जब भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम का इंतकाल हुआ तो सभी और से मीडिया का रुझान कलाम की तरफ था. सभी चैनलों और अखबारों में कलाम की गौरवगाथा के चर्चे थे. लेकिन जैसे ही याकूब की फांसी तय हुई उसी क्षण मीडिया ने कलाम को भूल अपना रुख एक ऐसे आतंकी की तरफ किया जिसकी सजा को इतना कवरेज देने की जरुरत नहीं थी. सेकड़ो लोगो के गुनहगार याकूब मेमन को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी तो सुनाई लेकिन तब जब वह अपने जीवन की एक तिहाई उम्र पार कर चूका. क्या हिंदुस्तान की यही नियति है ? या फिर कानून की लापरवाही ?

एक तरफ जहा याकूब की फांसी पर सुप्रीम कोर्ट वाह वाही लूट रहा है वही दूसरी और जहन में कानून प्रकिया पर कई सवाल भी उठ रहे है. मुंबई बम धमाके मामले में याकूब की फांसी से जहां पुरे देश में चर्चाए हो रही है वही दूसरी और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का कार्ड कहता है की बीते दस सालो 2004 - 2013 में देशभर में 1,303 लोगो को मृत्युदंड दिया गया. लेकिन महज तीन लोगो को ही फांसी की सजा हुई. कही न कही यह कुरेदता है कानून की उस नीति को जिस पर लोग गर्व करते है.

डॉ. कलाम को पंचतत्व में विलीन होते तो दिखाया गया लेकिन उस आतंकी याकूब मेमन का कवरेज नही दिया. क्यों ? इतने सवालो के जवाब जानने की बजाय मीडिया को परवाह है तो अपनी टीआरपी की. हमेशा देखा गया है की पूर्वी क्षेत्रो में मीडिया ने अपना जोहर नही दिखाया है और न ही कोई पहल की है. जहां एक तरफ देश विदेश की खबरों का हवाला दिया जाता है. वही दूसरी और पूर्वी क्षेत्र को गुमनामी की सूचि में रखा जाता है. आखिर कब मीडिया की टीआरपी नाम की भूख मिटेगी और वह अपने उद्देश्य पर खरा उतरेगा. आज ज़रूरत है तो निष्पक्ष पत्रकारिता की जिसकी उम्मीद 1 रुपए का अख़बार खरीदने से पहले एक व्यक्ति रखता है.

संदीप मीणा

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