पारिस्थितिकी का बिगड़ता पैमाना है गंभीर विषय
पारिस्थितिकी का बिगड़ता पैमाना है गंभीर विषय
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आज समूचे विश्व में पारिस्थितिकी के परिवर्तन को महसूस किया जा रहा है। सालभर में कहीं बाढ़ का प्रकोप देखने को मिलता है तो कहीं भूस्खलन और हिमस्खलन से बड़े - बड़े पर्वतों की चट्टानें खिसकने लगती हैं। यही नहीं अब तो नेपाल जैसे देशों को लगभग हर माह भूकंप जैसी त्रासदी का सामना करना पड़ रहा है। जी हां, आखिर यह सब क्यों हो रहा है। क्या आपने इस पर विचार किया है। विश्व पर्यावरण दिवस को लेकर जब हम पर्यावरण संतुलन की बात करते हैं तो हम कुछ इस तरह से विभिन्न तथ्ययों पर चिचार कर सकते हैं। आप अपने बच्चों की स्टडी करवाते समय उनके साथ एक रोचक खेल भी खेल सकते हैं। ऐसा करने के साथ जहां आपके बच्चों की स्टडी रोचक तरीके से हो सकेगी वहीं बच्चों का नाॅलेज भी बढेगा लेकिन इसी के साथ एक गंभीर तथ्य सामने आएगा।

जी हां, क्या आप अपने बच्चों की साईंस बुक में बने पारिस्थितिकी के ग्राफ को देखकर यह बता सकते हैं कि इनमें से कौन से जीव या पशु- पक्षियों के अस्तित्व पर संकट नहीं मंडरा रहा है। जब आप इस मसले पर विचार करेंगे तो आप को यह अनुभव होगा कि पारिस्थितिकी तंत्र के सभी जीवों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। जी हां अब तो हमें चीडि़यों की अधिक प्रजातियां भी नज़र नहीं आती। श्राद्ध प़क्ष की शुरूआत के ही साथ लोग अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए कौओं की तलाश में लगे रहते हैं आखिर कौए होंगे तो आऐंगे। यही हालात शेरों को लेकर नज़र आती है। देश ही नहीं विदेशों में भी बाघ और शेर की मौत एक गंभीर विषय है।

इनके संरक्षण के लिए विशेषतौर पर टाईगर रिज़र्व बनाए गए हैं। दूसरी ओर नागों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है। पारिस्थितिकी का जैविक निर्भरता का संतुलन ही बिगड़ रहा है। अब तो जलीय जीवों पर भी अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। क्या आपने कभी गौर किया है कि मानव के अस्तित्व पर भी खतरा है। 

स्वयं मानव ने ही मानव के जीवन पर खतरा पैदा कर दिया है। जी हां, जिस तरह से खेतों में केमिकल फर्टीलाईज़र्स और पेस्टिसाइज़ का उपयोग होता है यह बेहद घातक है। इसका मानव शरीर पर ही नकारात्मक असर होता है। अब तो मवेशियों से अधिक से अधिक मात्रा में दुग्ध उत्पादन करने के लिए आॅक्सीटाॅक्सीन का उपयोग किया जाता है। 

आॅक्सीटाॅक्सीन का यह उपयोग दूध की मात्रा को तो बढ़ा देता है लेकिन इसका पशुओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यानि यहां भी सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को एक ही दिन में हलाल कर देने की बात सामने आती है। यही नहीं अब तो मैगी में भी घातक रसायनों और तत्वों के अमानक प्रयोग की बात सामने आ रही है। कुल मिलाकर हम अपने ही हाथ से अपने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को बिगाड़ने में लगे हैं।

क्या आपने विचार किया है कि प्रतिवर्ष गर्मी के मौसम में सूर्य आग क्यों उगलता है। यही नहीं क्या आपने यह सोचा है कि बारिश के मौसम में पर्याप्त वर्षा क्यों नहीं होती। जी हां, यह सब पारिस्थितिकी के बिगड़ते संतुलन के कारण होता है। कहा जा रहा है कि भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर में पर्वतीय क्षेत्र में प्रतिवर्ष भूस्खलन हो रहा है। यूं तो धरती के 70 प्रतिशत भाग पर जल उपलब्ध है लेकिन फिर भी एक बड़ी आबादी पीने योग्य जल से वंचित रह जाती है। यही नहीं कई ऐसे लोग हैं जिन्हें पर्याप्त पानी तक नहीं मिल पाता। वर्तमान में देश की लगभग सभी नदियां प्रदूषित हैं, यह एक गंभीर विषय है। इन नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। 

नैसर्गिकरूप से भी भूस्खलन होता है लेकिन मानवीय क्रियाकलाप के कारण इन क्षेत्रों में तेजी से भूस्खलन हो रहा है। जिससे पर्वतीय क्षेत्र प्रभावित हो रहा है। यही नहीं धरती की हलचलें बढ़ने लगी हैं और कई तरह की प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला बढ़ने लगा है।

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