क्या आपने सुनी है कुंभ से जुडी यह रहस्यमय कथा
क्या आपने सुनी है कुंभ से जुडी यह रहस्यमय कथा
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आप सभी को बता दें कि आज से कुंभ शुरू हो चुका है. ऐसे में कुंभ मतलब कलश (घड़ा). आप सभी को बता दें कि कुंभ नामक महापर्व की कथा भी कलश से ही जुड़ी हुई है और यही कारण है कि यह कुंभ कहलाता है. ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं कुंभ से जुडी वह कथा जो बहुत कम लोग जानते हैं. आइए बताते हैं. कुंभ पर्व की अनसुनी कथा- कुंभ पर्व की यह कथा प्रजापति कश्यप की पत्नियों 'कद्रू' और विनता के बीच हुई तकरार से संबद्ध है.

यह कथा कुछ इस प्रकार है- एक बार प्रजापति कश्यप की पत्नियों कद्रू और विनता के बीच सूर्य के अश्व (घोड़े) काले हैं या सफेद, विषय को लेकर विवाद छिड़ गया. विवाद ने प्रतिष्ठा का रूप ले लिया और शर्त लग गई कि जिसकी बात झूठी निकलेगी, वह दासी बनकर रहेगी. कद्रू के पुत्र थे 'नागराज वासुकि' और विनता के पुत्र थे 'वैनतेय गरुड़'. कद्रू ने विनता के साथ छल किया और अपने नागवंश को प्रेरित करके उनके कालेपन से सूर्य के अश्वों को ढंक दिया. फलत: विनता शर्त हार गई और उसे दासी बनकर रहना पड़ा. दासी के रूप में अपने को असहाय संकट से छुड़ाने के लिए विनता ने अपने पुत्र गरुड़ से कहा तो गरुड़ ने कद्रू से उपाय पूछा.

उपाय बताते हुए कद्रू ने कहा कि यदि नागलोक में वासुकि से रक्षित 'अमृत कुंभ' जब भी कोई लाभ देगा, तब मैं विनता को दासत्व से मुक्ति दे दूंगी. कद्रू के मुख से उपाय सुनकर स्वयं गरुड़ ने नागलोक जाकर वासुकि से अमृत कुंभ अपने अधिकार में ले लिया और अपने पिता कश्यप मुनि के उत्तराखंड में गंध मादन पर्वत पर स्थित आश्रम के लिए वे चल पड़े. उधर वासुकि ने देवराज इंद्र को अमृत हरण की सूचना दे दी. 'अमृत कुंभ' को गरुड़ से छीनने के लिए देवराज इंद्र ने गरुड़ पर चार बार हमला किया जिससे मार्ग में पड़ने वाले स्थलों- प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) में कलश से अमृत छलककर गिर पड़ा. कहीं-कहीं कथा भेद से उल्लेख है कि गरुड़ द्वारा 'अमृत कलश' चोंच मे पकड़े हुए होने के कारण अमृत छलककर (विश्राम के क्षणों में) गिरा. उक्त चारों स्थलों पर अमृतपात् की स्मृति में कुंभ पर्व मनाया जाने लगा. देवासुर संग्राम की जगह इस कथा में गरुड़-नाग संघर्ष प्रमुख हो गया और जयंत की जगह इंद्र स्वयं सामने आ गए.

यह कहना कठिन है कि कौन सी कथा अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक है. पर व्यापक रूप से समुद्र मंथन की तीसरी कथा को अधिक महत्व दिया जाता है और इसी तीसरी कथा को ही पौराणिक पृष्‍ठभूमि में सर्वोपरि स्‍थान मिला है. देवासुर संघर्ष, जिसका रूप समुद्र मंथन की कथा से स्पष्ट हो जाता है. ऐसी लालित्य और अर्थपूर्ण कथा विश्व साहित्य में अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलती है. देवताओं और असुरों की प्रवृत्ति का जितना परिचय इससे मिलता है, उतना किसी और कथा से नहीं.

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