जब कामधेनु गाय के लिए 2 महान ऋषियों में छिड़ा संघर्ष
जब कामधेनु गाय के लिए 2 महान ऋषियों में छिड़ा संघर्ष
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महर्षि वशिष्ठ ने हमेशा समाज हित के लिए कार्य किए। जी हाँ और धरती पर सूखा पड़ने पर अपने तपोबल से ही उन्होंने वर्षा करवाई। केवल यही नहीं बल्कि भुखमरी से मौतों को रोकने के लिए जीवों की अकाल मृत्यु से रक्षा की। इसी के साथ महर्षि वशिष्ठ प्रभु श्री राम के राज ऋषि थे। जी दरअसल महर्षि वशिष्ठ ने अपने तप तेज से कई सत्कर्म किये। लेकिन एक समय ऐसा आया जब यही दो महान ऋषि एक दूसरे के विरुद्ध हो गए जिसक कारण थीं माता काम धेनु गाय। अब हम आपको बताते हैं रामायण काल की इस रोचक कथा के बारे में जब दो महान ऋषियों के मध्य छिड़ गया था युद्ध!

भगवान श्री राम के प्रिय थे महर्षि वशिष्ठ- कहा जाता है ब्रह्मा जी के मानस पुत्र महर्षि वशिष्ठ का जीवन भगवान श्री राम के प्रेम से सराबोर रहा। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के प्रति अनुराग के कारण ही महर्षि ने सूर्यवंशी राजाओं का पौरोहित्य स्वीकार किया था। हालांकि जब उनके पिता ब्रह्मा जी ने सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहित बनने की आज्ञा दी तो उन्होंने इनकार कर दिया था। जी हाँ लेकिन जब ब्रह्मा जी ने बताया कि इसी वंश में श्री राम जन्म लेने वाले हैं तो वह तुरंत तैयार हो गए। पृथ्वी लोक में उन्होंने अपने को हमेशा समाज हित में लगाए रखा। जब कभी सूखा पड़ा तो महर्षि ने अपने तपोबल से वर्षा कराई जब कभी भुखमरी से मौतें होने लगीं तो भी उन्होंने जीवों की अकाल मृत्यु से रक्षा की।

कहा जाता है तीन रानियां होने के बाद भी बरसों तक कोई पुत्र न होने से कौशल नरेश महाराज दशरथ निराश रहने लगे थे। वे अंदर ही अंदर घुलते जा रहे थे। इस बात की जानकारी होने पर महर्षि वशिष्ठ ने ही तब महाराज से पुत्रेष्टि यज्ञ करवा कर उनकी निराशा में आशा का संचार किया। यज्ञ के परिणाम स्वरूप श्री राम ने अपने तीन भाइयों के साथ अवतार लिया। इसी के साथ महाराज ने जब श्री राम सहित चारों पुत्रों को शिक्षित करने का आग्रह किया तो श्री राम को शिष्य के रूप में पाकर महर्षि ने अपने जीवन को सफल मान लिया। उन्होंने श्री राम को वेद वेदांग ही नहीं बल्कि योग वशिष्ठ जैसे ज्ञानमय ग्रंथ का उपदेश दिया। वहीं श्री राम के 14 वर्ष के वनवास के बाद लौटने पर श्री राम का राज्याभिषेक कराने के साथ ही उन्हें राजकीय कार्य में समय समय पर परामर्श देते रहे लोक हित में अनेकों यज्ञ आदि करावए।

वहीं एक बार राजर्षि विश्वामित्र उनके आश्रम में अतिथि बनकर आए। उन्होंने बड़े ही प्रेम से अपनी कामधेनु गाय की सहायता से अनेकों प्रकार के व्यंजन उनकी सेवा में समर्पित किए। विभिन्न प्रकार की भोजन सामग्री प्राप्त कर विश्वामित्र अपने विशाल सेना के साथ संतुष्ट हुए। गाय की अलौकिक क्षमता देखकर विश्वामित्र को बहुत आश्चर्य हुआ उन्होंने उसे लेने की इच्छा व्यक्त की। उस दौरान वशिष्ठ जी ने उस गाय को देने में असमर्थता व्यक्त की तो विश्वामित्र ने गाय को जबरन छीनने की इच्छा व्यक्त की। बस महर्षि वशिष्ठ ने उस गाय की सहायता से विशाल सेना खड़ी कर दी जिसने विश्वामित्र की सेना को मार भगाया। क्षत्रिय बल के सामने ब्रह्मबल की महानता को देख उन्हें हार माननी पड़ी।

हालाँकि विश्वामित्र के मन में महर्षि वशिष्ठ के प्रति गुस्सा कम नहीं हुआ और बदला लेने के लिए उन्होंने शिव जी की तपस्या की दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिया। दिव्यास्त्र से हमला करने के बाद भी महर्षि के ब्रह्मदंड के सामने वह कमजोर पड़ गए अंततः हार स्वीकार कल ली। वहीं जब विश्वामित्र ने महर्षि के सौ पुत्रों का संहार कर दिया तब उन्हें अपार शोक तो हुआ किंतु फिर भी वे क्रोधित नहीं हुए न ही विश्वामित्र के अनिष्ट की कामना की जबकि विश्वामित्र का नुकसान करने की उनकी अपार सामर्थ्य थी।

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