आखिर कितना जायज़ है सामाजिक असहिष्णुता का यह रूप
आखिर कितना जायज़ है सामाजिक असहिष्णुता का यह रूप
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यूं तो देश में अक्सर इस बात पर बहस होने लगती है कि आखिर बीफ, मीट या रोटी के साथ और क्या सेवन किया जाए मगर दालों पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता, जाएगा भी कैसे न तो रूलिंग पार्टी इसकी रेट लिस्ट के कारण इसका नाम लेती है न ही अपोजिशन। इस बार अपोजिशन की दाल नहीं गली लेकिन बीते वर्षों में तो उसकी सरकारें थीं, सो वह दालों का नाम ले तो भी सत्तापक्ष पर सवाल कैसे लगेंगे, बरहाल देशभर में असहिष्णुता की बात होती है, आनन-फानन में भारत के लोकप्रियता के ऐसे कलाकारों जिन्हें महत्वपूर्ण अवार्ड दिए जाते हैं, जिनके अभिनय और कला की मिसाल दी जाती है उन्हें भारत छोड़ो का नारा दे दिया जाता है कह दिया जाता है कि वे देश छोड़कर चले जाऐ, न तो मित्र राष्ट्र नेपाल जाऐं और न ही हथियार प्रदान करने वाले रशिया या अमेरिका जाऐं।

उन्हें तो पाकिस्तान जाने के लिए कह दिया जाता है लेकिन इसके उलट एक असहिष्णुता भी देश में चल रही है उस पर किसी का ध्यान नहीं है, हालांकि राजनीतिक असहिष्णुता देश के तिरंगे में व्याप्त तीन रंगों को अलग कर देती है मगर सामाजिक असहिष्णुता भी समाज में वैमनस्य और अराजकता की स्थिति को जन्म देती है। इस असहिष्णुता को समाप्त करने की आवश्यकता है। 

जब आपने सुबह सवेरे का समाचार पत्र पढ़ा होगा तो फ्रंट पेज पर समाचार पढ़ने के बाद आपको आगे समाचार पत्र पढ़ने का मन नहीं हुआ होगा, चाय की प्याली में बिस्कुट-टोस्ट डुबोने के ही साथ आपने टेलिविजन समाचार देखे होंगे वहां भी वहीं रिमोट एक जगह ठहरा ही नहीं होगा, समाचारों में एक ही बात थी, दिल्ली में अपने बच्चे के साथ क्रिकेट खेलने वाले एक व्यक्ति का वाहन से टक्कर लगने पर विवाद हुआ और यह विवाद हिंसा में बदल गया।

एक लड़की बालीबाल की खिलाड़ी थी, उसकी उम्र कुछ 14 वर्ष होगी, अपने मैदान में स्पोर्टस टीचर के साथ मौजूद थी, एक लड़का उसके पास आया, उसने उसे प्रपोज़ किया, जब लड़की ने इन्कार कर दिया तो उस लड़के ने चाकू मार दिया। लड़की की मौत हो गई। आखिर यह एक तरह की असहिष्णुता ही है। इन्टाॅलरेंस, जीवन में हमें कुछ नहीं मिला तो हम असहनीय से हो गए, असहज महसूस करने लगे और फिर हमने किसी के जीवन को समाप्त ही कर दिया, आखिर ऐसा क्यों होता जा रहा है।

डिजीटल इंडिया के युग में प्रवेश करने वाली यह पीढ़ी उस आर्यावर्त को भूल गई जिसकी अवधारणा वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित थी, ग्लोबल विलेज के इस दौर में हाईस्पीड इंटरनेट से नैनो सेकंड में कनेक्टिविटी मिल जाती है लेकिन क्या यह दिल की कनेक्टिविटी है। समाज में इस तरह से अराजकता फैल रही है, फर्ज़ कीजिए यदि आपके परिचय में कोई वैवाहिक समारोह आयोजित हो रहा है, अचानक वहां कोई छोटा-मोटा चोर आ जाता है और वह पकड़ा जाता है तो आप क्या उसे पीट-पीटकर मार डालेंगे।

ज़रा सी बात पर मार-पीट करने को आज लोग अपना अधिकार समझने लगे हैं। इस तरह की अराजकता क्यों? आखिर लोग इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि उन्हें यह नज़र नहीं आता कि किसी भी समस्या का समाधान हत्या, आत्महत्या और मार-पीट में नहीं है। इस तरह से लोकतंत्र से लोग भीड़तंत्र की ओर जा रहे हैं। मगर यह मत भूलिए कि भीड़ तंत्र के इसी जाल ने हरियाणा में आरक्षण की मांग करने वाले जाटों को इस कदर अराजक कर दिया था कि वे आपराधिक हो गए थे। भीड़ ने आंदोलन की आड़ में कई तरह की आपराधिक घटनाओं को अंजाम दिया, यदि समाज लोकतंत्र से भीड़ तंत्र की ओर जाना चाहता है तो इसके परिणाम सभ्यता के अंत के रूप में भी सामने आ सकते हैं। 

'लव गडकरी'

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