कुछ अच्छा सा कुछ सच्चा सा, कुछ ऐसा सा कुछ वैसा सा..! हां कुछ ऐसा ही था वो बचपन, वो बचपन जो बीत गया और अपने साथ दे गया कई सारी ऐसी यादे, ऐसी बाते जिन्हे गर आज भी याद कर लिया जाए तो रोती हुई आँखों में हंसी की एक लहर सी दिखाई दे. बचपन का अनुभव कुछ होता ही ऐसा है, धुंधली सी यादे और ना भूल सकने वाली बाते. जिन्हे बचपन बीत जाने पर याद किया जाए तो एक ऐसा अहसास होता है जिन्हे हम आज शब्दों में बयां नहीं कर सकते है. लेकिन जब कभी आज पीछे मुड़कर उन हसीन पलों को याद करते है तो दिल खुश हो जाता है.
आज हम बचपन के उन लम्हों से मीलों दूर निकल आये है, ना केवल बहुत दूर बल्कि इतना आगे कि अब उस समय में लौटा नहीं जा सकता है. आज दिल के किसी कौने में ये अहसास होता है कि जो बीत गया वहीँ समय जिंदगी का सबसे अच्छा समय था. आज हम बचपन से कुछ ऊपर उठ गए है. शायद बड़े हो गए है, आज जिम्मेदारियों का वजन है, जो चाहकर भी बचपन में लौटने नहीं देती है. कल तक "पापा-मम्मी" के दिए एक रूपये से खुश हो जाया करते थे आज एक-एक रुपया जोड़ना सीख गए है. सच ही कहा है किसी ने -
"शौक तो सिर्फ माँ बाप के दिए पैसो से पूरा होता था, अपने पैसो से तो बस जरूरते ही पूरी हो पाती है."
बचपन के बारे में गर बात करने बैठ जाए तो हर लम्हा कम पड़ जाए. वो कांच के कंचे, वो गिल्ली-डंडा, वो मिटटी में खेलना, वो पुराने कपड़ों की गेंद बनाकर खेलना. सब उस बचपन को याद करने पर मजबूर सा कर देता है. बचपन के कभी न भूल सकने वाले खेल जो आज याद आने पर दिल को एक गहरी तसल्ली दे जाते है. लेकिन कुछ ही पलों बाद सब धुंधला सा हो जाता है. और फिर...
और फिर हर सुबह की तरह फिर से निकल जाते है घर से उन जिम्मेदारियों को निभाने के लिए जो इन नाजुक कन्धों पर है. वो जिम्मेदारियां जिनका बचपन में अहसास भी नहीं होता है, जिनके बारे में कभी ना किसी ने बताया और ना ही कभी सिखाया लेकिन कहते है ना कि "समय हर किसी को सब कुछ सीखा ही देता है", और अंत में कुछ शब्द इन जिम्मेदारियों को उठाने वाले हर शख्स के लिए -
हर रोज निकल जाता हूँ मैं घर से कमाने के लिए,
लेकिन आज तक ये समझ नहीं पाया हूँ !
कि कमाने के लिए जी रहा हूँ,
या जीने के लिए कमा रहा हूँ.!
हितेश सोनगरा