बाजारीकरण के दौर में क्या वाकई बिक रहा है असहिष्णुता?
बाजारीकरण के दौर में क्या वाकई बिक रहा है असहिष्णुता?
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बीते कुछ समय में “असहिष्णुता” शब्द का इस्तेमाल तो अनगिनत बार हुआ पर आज इसकी परिभाषा, इसकी नींव को समझने की कोशिश करते है। असहिष्णुता का सीधा और सटीक अर्थ है— जो सहने योग्य न हो। वो बात जो एक-दूसरे के विचार, व्यवहार और विश्वास में अंतर बताए और यही बात तो हर इंसान को दूसरे से अलग बनाता है। सभी एक जैसा सोचे या बोले तो फिर 125 करोड़ की आबादी समान व्यवहार करने लगेगी।

युवा ब्रिगेड मानती है कि जब तक किसी की बात को चुपचाप बिना किसी विरोध के सहते रहे तब तक कोई व्यक्ति सहिष्णु होता है। असहिष्णुता का अंग्रेजी अनुवाद है—“Intolerance”। यह शब्द 1765 में लैटिन शब्द intolerantia से लिया गया है। इसके बदले हम impatience, unendurableness, insufferableness, insolence इन शब्दों का भी प्रयोग करते है। वैसे तो इसका प्रयोग 17 वीं सदी से हो रहा है लेकिन मिड 90’s में इसका प्रयोग धर्म के मामले में होने लगा।

शब्द तो बस मीडिया में तहलका मचाने का एक जरिया है या यूं कहे कि यह किसी अखबार में छपे हेडिंग के समान है, जिसे सुनते ही सबके कान खड़े हो जाते है। इस शब्द को सड़कों पर लेकर निकले तो पता चलेगा कुछ मुठ्ठी भर लोगो को छोड़कर और किसी को इस बात से कोई फर्क नही पड़ता। धर्म के मामले में भारत एक ऐसा देश है, जहाँ लोग सुली पर चढ़ने तक को तैयार हो जाते है। बस इसी का फायदा कभी “फैन” बनाने के लिए तो कभी “दंगल” फैलाने के लिए किया जा रहा है।

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