अमूल : सहकारिता ने दी देश को विश्वपटल पर नई पहचान
अमूल : सहकारिता ने दी देश को विश्वपटल पर नई पहचान
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बिना सहकार नहीं उद्धार आपने यह जुमला अक्सर सुना होगा। यह बेहद सटीक जुमला है। यदि आप अपने दैनिक जीवन में देखें तो परस्पर निर्भरता हमारे जीवन का अनिवार्य  अंग बन चुकी है। हम एक दूसरे के सहयोग के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इसे जब हम व्यापक तौर पर देखते हैं तो यह किसी राष्ट्र की शक्ति के तौर पर  सामने आता है। इसकी बानगी हम आणंद मिल्क यूनियन लिमिटेड के तौर पर देख सकते हैं। यह विश्व का एक बहुत ही सफल सहकारी संस्थान बन चुका है। सहकारिता की बदौलत एक क्रांति ने कई लोगों को रोजगार देने की उपलब्धि हासिल की।  दरअसल यूएन द्वारा जुलाई माह के प्रथम सप्ताह पर अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता दिवस मनाया जाता है। युनाईटेड नेशंस ने 1992 में इस संबंध में घोषणा करते हुए इस दिन को  अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता दिवस मनाने की शुरूआत की। 16 दिसंबर 1992 को संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा इस मामले में प्रस्ताव पारित किया गया। भारत के लिहाज से यह बहुत महत्वपूर्ण  है क्योंकि हमारी अधिकांश आबादी आज भी गांवों में निवास करती है और गांवों में पारंपरिकतौर पर सभी एक दूसरे से सहयोग कर ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं। 

स्वतंत्रता के  बाद  सहकारिता ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया।  बात अमूल की हो या महिला सशक्तिकरण की हर मोर्चे पर सहकारिता ने एक शक्ति का काम किया है। गुजरात राज्य के खेड़ा  में अंग्रेजों द्वारा दुग्ध उत्पादन पर लगाई गई   पाबंदी ने आखिरकार एक बड़ा रूप ले लिया। दरअसल अंग्रेजों द्वारा जिस तरह से भारत के किसानों और दुग्धउत्पादकों का पोलसन डेयरी की नीतियों के माध्यम से शोषण किया  गया वह अंग्रेजों के इतिहास का काला अध्याय बन गया। इसके विरोध में सरदार पटेल ने सत्याग्रह आंदोलन चलाया और आणंद में सहकारी दुग्धउत्पादक सेवा अमूल की  शुरूआत हुई। बाद में श्वेत क्रांति के जनक कहे जाने वाले वर्गीज कुरियन ने इसे नए आयाम दिए और यह सहकारी संस्था आज विश्व में बड़े उत्पादक निगमों में बदल गई।  सहकारिता का यह केवल एक ही उदाहरण नहीं है। 

भारत की कई ऐसी ग्रामीण महिलाओं को जो अपने घर में रहकर धन का अर्जन बढ़ाना चाहती हों उन्हें सहकारिता ने बल  दिया और उन्होंने सहकारिता के माध्यम से गृहउद्योगों की शुरूआत की। ये गृहउद्योग धीरे - धीरे महिला स्वयं सहायता समूहों में बदले और महिलाओं ने आपसी भागीदारी से न  केवल स्वयं का विकास किया बल्कि अपने गांव का भी उद्धार कर डाला। आज ये स्वयं सहायता समूह सिलाई, कढ़ाई के प्रशिक्षण केंद्रों, महिलाओं द्वारा निर्मित की जाने वाली  हथकरघा सामग्रियों जैसे बेग, बांस की वस्तुऐं, अचार, पापड़ आदि का निर्माण करने से कहीं अधिक आगे निकल गई हैं। 

इन स्वसहायता समूहों द्वारा महिलाओं क आर्थिक  गतिविधियों को भी बल दिया जाने लगा है और अब ये समूह आपसी सहयोग से महिलाओं को छोटी जरूरतों के लिए लोन तक देने लगे हैं। इस तरह से भारत के गांवों में महिला  सशक्तिकरण की कहानी भी सहकारिता के माध्यम से ही पूरी की जा सकी है। हालांकि राजनीतिक हस्तक्षेप से लोगों के बीच सहकारिता का दुष्प्रचार होता रहा है। ऐसे में  भ्रष्टाचार की बातें भी सामने आईं, जिसके कारण लोग सहकारिता में निरसता दिखाने लगे लेकिन आज भी सहकारिता विकास का एक औजार बनकर देश के विभिन्न वर्गों को गति  दे रहा है। 

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