हो रहा है जड़ों को काटने का प्रयास
हो रहा है जड़ों को काटने का प्रयास
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वर्तमान में हर कहीं भौतिकतावादी माहौल नज़र आता है। भौतिकवाद की अंधी दौड़ में व्यक्ति अपना सुख-चैन खोता जा रहा है। वह निरंतर दौड़ रहा है लेकिन उसे कुछ भी पता नहीं है कि आखिर वह क्यों दौड़ रहा है। मगर ऐसा तब से हुआ है जब अंग्रेज हमारे देश में आए उन्होंने हमारे आसपास भौतिकवाद का एक सूक्ष्म जाल बुन डाला और हमें उसकी माया के इर्द - गिर्द बांध दिया। जिससे बाहर हम नहीं निकल रहे हैं। अब हमारी जड़ों को काटने का प्रयास किया जाने लगा है। यदि हम बात करें धर्म की तो धर्म में भी ऐसा ही कुछ माहौल है।

पहले हम ईश्वर को एक शक्ति मानकर उनका ध्यान करते थे। ईश्वर के सिद्धांतों पर अमल करते थे। इस दौरान हम सर्वे भन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत। की भावना कही गई है। हमारे वेद और पुराण प्रकृति के कल्याण पर आधारित हैं।

हमारे वेदों में जिस योग और यज्ञ की बात कही गई है वे पर्यावरण के कल्याण पर आधारित हैं। जिस तरह से वेदों में कहा गया है कि गाय के घी, गोबर के उपलों, आम की लकडि़यों, कपूर और समीधा को यज्ञ में समर्पित करने से जो धुंआ उत्पन्न होता है वह वातावरण को शुद्ध करता है तो दूसरी ओर वह बादल भी बनाता है।

इन बादलों के प्रभाव से वर्षा होती है। वेदों में नदियों को पर्वतों को पेड़ों को पूजने की बात कही गई है यह भी हमारे पारिस्थितिकी के लिए बेहद आवश्यक है। हमारे धर्म में हमेशा दान - पुण्य की बात कही गई है। यह दान कहीं जल में चांवल, धान्य आदि बहाकर और शिवलिंग पर सप्तधान्य चढ़ाकर फिर उसे गरीबों में बांटने के रूप में भी किया जाता है।

दरअसल इससे जलीय जीवों को भोजन मिलता है और उनका पौषण होता है। वेदों में गाय को बहुत ही महत्वपूर्ण और पूजनीय माना गया है। हमारे धर्म में सदैव त्याग की बात दर्शाई गई है। कभी भी प्रकृति से कुछ मांगा नहीं गया है। श्रीमद्भगवत् गीता में भी कर्म करो फल की इच्छा मत करो के आधार पर मांग को प्राथमिकता नहीं दी गई है। मगर अब हमारा धर्म भी भौतिकवाद की ओर मुड़ता जा रहा है। अब लोग ईश्वर को एक बैंक की तरह पूजते हैं। जिससे जितना पैसा मांगना चाहो उतना मांग लो और बदले में कुछ भेंट पेटी में चढ़ा दो जब यह कुछ समय बाद दुगनी होगी तो फिर डिमांड कर लेंगे।

अब पूर्ति पूजा के साथ व्यक्ति पूजा भी महत्वपूर्ण होते जा रही है। यही नहीं वैज्ञानिक आधार पर रचे गए वेद मंत्रों को वर्तमान में फास्ट फूड की तरह उपयोग में लाया जा रहा है। समय का अभाव होने पर इन मंत्रों को भगवान की पूजा में उपयोग होने वाला शंख और घंटी बजाकर जैसे तैसे बुदबुदा दिया जाता है और फिर शुरू हो जाती है डिमांड की लिस्ट। इससे हमारे धार्मिक विचार भी प्रभावित हो रहे हैं। भौतिकवाद के इस दौर में व्यक्ति दिखावटी मुस्कान का जादू बिखेर रहा है।

व्यक्ति अंदर से तो उतना ही दुखी है मगर वह किसी को भी दर्शा नहीं सकता। अब पैसे को महत्व दिया जाने लगा है और उसकी चाह में व्यक्ति अंधाधुंध दौड़ रहा है। ऐसे में वह केवल मशीन बन गया है और मशीन की तरह ही विचार करने लगा है। ऐसे में मानवीय मूल्य भी समाप्त होते जा रहे हैं।

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