बलात्कार पर बधिया करना कितना उचित
बलात्कार पर बधिया करना कितना उचित
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लगता है भारत में लोग भेड़ चाल का अनुसरण करते हैं। एक व्यक्ति विरोध करता है तो उसके साथ अन्य लोग भी विरोध करने निकल पड़ते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता होता है कि आखिर वे समाज को किस दिशा में ले जा रहे हैं। कई वर्षों पूर्व बिहार में घटित आंखफोड़वा की घटना आप सभी को याद होगी। दरअसल बड़े पैमाने पर अपराधों में लिप्त लोगों की आंखें फोड़कर जनता ने कानून अपने हाथ में ले लिया था।

ऐसे में कानून-व्यवस्था और राज्य की सामाजिक स्थिति अराजक हो गई थी। फिल्म गंगाजल में आपने इसी तरह के कुछ दृश्य देखे होंगे जिसमें यह दर्शाया जाता है कि किस तरह से अपराधियों की आंखें फोड़ दी जाती हैं और स्थिति अराजक हो जाती है। ठीक वैसी ही हालात पैदा करने चली है हमारी न्यायपालिका। 

जी हां, न्यायपालिका जहां पर न्यायाधीशों को संविधान के रक्षण अनुपालन के लिए बैठाया जाता है। जिसकी न्यायदेवी एक हाथ में तराजू पकड़कर दोनों पलड़ों को एक समान रखती है। उस न्यायपालिका के न्यायाधीश जिन्हें हम न्यायमूर्ति का दर्जा देते हैं वे ऐसी बातें करने लगे हैं। जिसे आम बोलचाल की भाषा मे अनपढ़-गंवारों का निर्णय कहा जा सकता है।

दरअसल हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय समेत अन्य उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने बच्चों के साथ बलात्कार करने वालों को बधिया या नपुंसक बनाने की बात कही। उनका कहना था कि इस तरह के अपराधियों के साथ इस तरह का व्यवहार होना चाहिए। महिला आयोग ने भी इस पर अपनी रज़ामंदी दे दी लेकिन क्या न्याय के सिंहासन पर आसीन न्यायमूर्तियों ने इस बात का विचार किया कि इस तरह के कृत्य का समाज पर क्या असर होगा।

हालांकि बच्चों के साथ यौन दुराचरण या फिर बलात्कार करना एक निंदनीय कृत्य है मगर क्या इस मसले पर इस तरह की सज़ा का विचार न्यायपालिका के सिंहासन पर विराजित जजों को शोभा देता है। वे जज जो प्रबुद्ध वर्ग का भी प्रतिनिधित्व करने लगे तो फिर इस समाज के हर व्यक्ति के हाथ में तलवार होगी और दूसरे हाथ में एक कटा हुआ नरमुंड। 

हालांकि यहां हम न्यायपालिका के किसी निर्णय की न तो भत्सर्ना कर रहे हैं और नही उसके किसी निर्णय को प्रभावित करने का हमारा प्रयास है लेकिन न्यायपालिका में इस तरह का विचार किए जाने से समाज की कानून-व्यवस्था बिगड़ सकती है। क्या न्यायाधीशों ने उस पंक्ति पर विचार किया जो अक्सर केंद्रीय जेलों के बाहर पढ़ने को मिलती है। जिसमें संदेश होता है-अपराध से घृणा करें अपराधी से नहीं। यदि इसी तरह से लोगों को बधिया किया जाता रहा तो आंख के बदले आंख का कृत्य समाज में सामने आने लगेगा और बड़े पैमाने पर लोग बधिया हो जाऐंगे।

लगभग हर पुरूष नपुंसक हो जाएगा क्यांकि केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने ही कहा है कि जब तक नारी और नर रहेगा छेड़छाड़ जैसी घटनाऐं सामने आती रहेंगी। उल्लेखनीय है कि छेड़छाड़ जैसी घटना पर लोग इस तहर की प्रतिक्रियाऐं व्यक्त कर कानून अपने हाथ में लेते हैं। 

बच्चों के साथ बलात्कार करने वालों की मनोवृत्तियों को समझा जाना और उस पर अमल कर उनका ब्रेन समाज की सकारात्मक रचना के लिए वाॅश करना जरूरी है। जो न्यायाधीश इस तरह की बात पर विचार कर रहे हैं उन्हें पहले यह विचार करने की जरूरत है कि आखिर जेल सुधारीकरण कितना आवश्यक है। हाल ही में यह बात सामने आई है कि निर्भया बलात्कार कांड का आरोपी किशोर किशोर सुधार गृह जाने के बाद आतंकवाद की ओर मुड़ गया।

आखिर यह किस तरह का सुधार कार्य है। वह अपने गांव जाने से तक डर रहा है कि कहीं गांव में उसकी हत्या न कर दिया जाए। यह समाज का किस तरह का स्वरूप है। यदि हम एक सभ्य, निर्भिक, स्वतंत्र, उन्नत समाज की स्थापना करना चाहते हैं तो पहले हमें सोश्यल रिफाॅर्म और जेल सुधारीकरण पर ध्यान देना होगा। आंख के बदले आंख लेने का नियम अमानवीय होगा और इस पर चलने वाला समाज अराजक हो जाएगा।

 

लव गडकरी

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