जीवन में उन्नति के लिये करें घमंड का त्याग
जीवन में उन्नति के लिये करें घमंड का त्याग
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कुछ व्यक्ति ऐसे होते है। जो तीन तरह का बल प्रगट करते है। वही बल उनका घमंड के रूप में परिवर्तित हो जाता है। 

तन - इसका आशय यह है। की यदि अच्छा शरीर मिला है, वह हष्ट पुष्ट है। तो कई बार उसका भी घमंड होता है।

जन –परिवार में अधिक व्यक्ति है लोगों से लड़ सकते है। हम सब मिलकर बल दिखाएगे। यह भी घमंड होता है। 

धन – धन का घमंड तो खास रूप से होता ही है। व्यक्ति इसमे इतना लीन रहता है। की बाकी चीजों, व्यक्तियों का उसे ध्यान ही नहीं रहता क्या अच्छा है क्या बुरा है उसे जरा भी होश नहीं रहता।

व्यक्ति के जीवन में सरलता सहजता व विचारों का उच्च होना वह उसकी महानता कहलाती है। यदि कोई भी व्यक्ति किसी की सहायता करता है। या कोई अच्छा कार्य करता है। तो यह उसकी सिष्टता होती है। पर यदि वह स्वयं के द्वारा किसी अन्न की सहायता के लिये किए गये कार्यो का बखान करें तो यह उसका अहम होता है।

इसी के चलते आप इस कहानी से कुछ सीख ले सकते है- 

कहा जाता है की बौद्ध भिक्षु बनने की एक अनिवार्य शर्त होती थी । कि व्यक्ति को अपना नाम बदलना पड़ता था और उसे एक नये नाम से संबोधित किया जाता था । इसे करने का मात्र एक ही उद्देश्य था कि किसी भी व्यक्तिको अपने वर्ण, गोत्र, जाति इत्यादि का आभास न रहे। और वे एक शिष्ट शिष्य के रूप में ही अध्ययन करें । 

एक बार शिष्यों के बीच इसी नियम को लेकर चर्चा चल पड़ी। कुछ शिष्य कहने लगे कि दीक्षित होने के बाद भी शरीर तो छूटता नहीं तो व्यक्ति के ये गोत्र, जाति, वर्ण आदि कैसे छूट सकते है। उनके शिष्यो के बीच काफी देर तक इसी को लेकर विचार विमर्श चलता रहा, पर वे किसी अंतिम निर्णय तक नहीं पहुंच सके।

जब बात भगवान बुद्ध के कानों तक भी पहुंची तो उन्होंने सभी शिष्यों को बुलाया और कहा - आज तुम लोगों के बीच जिस विषय को लेकर विमर्श चल रहा था वह में जानता हूँ । तभी एक शिष्य बोला - हां भगवन हम लोगों ने बहुत सोच विचार किया पर हम इस बात को नहीं समझ सके कि भिक्षु बनने के लिए नाम बदलने की यह अनिवार्य शर्त क्यों रखी गई हैं? व्यक्ति का शरीर तो वही रहता है वह तो बदलता नहीं पर ये जाति गोत्र आदि क्यों? 

फिर ऐसे में उसे गोत्र, जाति, वर्ण इत्यादि से किस प्रकार मुक्ति मिल सकती है? यह सुनकर भगवान बुद्ध मुस्कराए और कहने लगे की वत्स, क्या तुमने सांप को देखा है? तब एक शिष्य बोला - हां, बिलकुल देखा है।बुद्ध ने अगला प्रश्न किया - तो तुमने सांप की केंचुली भी देखी होगी? शिष्य बोला हां भगवन देखी है। तब बुद्ध बोले - 'कोई मुझे बताए कि जब केंचुली आती है तो क्या होता है? एक शिष्य बोला - भगवन केंचुली आने पर सांप अंधा हो जाता है। इस पर भगवान बुद्ध ने अगला सवाल किया - और जब केंचुली छूट जाए तब? शिष्य ने जवाब दिया की सांप को पुन: दिखाई देने लगता है।

तब बुद्ध ने सभी शिष्यों को समझाते हुए कहा - 'इसी तरह गोत्र, वर्ण, जातियां इत्यादि भी व्यक्ति के लिए केंचुली के समान ही हैं। जब तक इनका आवरण रहता है, तब तक मनुष्य इनके अहंकार में अंधा बना रहता है। उसे अपने शरीर, जाति, धन, वर्ण आदि का अहम होता है।

परंतु जब यह धन जाति वर्ण रूपी केंचुलियां छूट जाती हैं, तो उसे सर्वव्यापी विराटसत्ता की अनुभूति होने लगती है। इसलिए नाम, पद, प्रतिष्ठा ,बल यश, कुल और गोत्र के  अहं से विमुक्त होना अति आवश्यक होता है। भगवान बुद्ध के इस प्रेरक प्रसंग को सुनकर शिष्यों की शंका का समाधान हो गया। और वो अपने गुरु की राह में सद भाव व निष्ठा के साथ आगे बढ़ने लगे ।

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