परिवार का पेट भरने के लिए करना पड़ता है पलायन
परिवार का पेट भरने के लिए करना पड़ता है पलायन
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मध्यप्रदेश में छतरपुर जिले के देवपुर गांव के भगवान दास आदिवासी ने रोजी-रोटी की तलाश में कई बार अपने गांव से दूसरे राज्यों का रुख किया है, लेकिन उन्हें ऐसा अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि मजबूरी में करना पड़ा। पिछले साल उन्हें खेती के लिए पानी मिल गया तो अब वह पलायन करने के मूड में नहीं हैं। भगवान दास की तरह कई और ऐसे कामगार हैं जो गांव से बाहर रोजगार के लिए जाने को तैयार नहीं हैं। देश का कोई भी कोना हो, वहां बुंदेलखंड का मजदूर आसानी से मिल जाता है, कारण यह है कि यहां रोजगार के अवसर नहीं है, जीवकोपार्जन का एक मात्र जरिया सिर्फ खेती है, पानी की अनुपलब्धता के चलते खेती भी हो नहीं पा रही है। लिहाजा, लोगों को गांव में काम मिलता नहीं है, वहीं खुद के पास जमीन होने के बावजूद उन्हें अपना और परिवार का पेट भरने के लिए दूसरे राज्यों का रुख करना पड़ता है।

इस इलाके से अमूमन अप्रैल-मई से पलायन का दौर शुरू हो जाता है, आलम यह होता है कि गांव के गांव खाली हो जाते हैं, मगर इस बार शादी विवाह का दौर मई में भी जारी रहने के कारण पलायन का असर हमेशा की तरह नहीं है। हालांकि कई परिवार कामकाज नहीं मिलने से पलायन का रास्ता अपनाने की तैयारी में जरूर हैं। छतरपुर के देवपुर गांव में कुल दो सौ परिवार निवास करते हैं, जिनमें से आधी आबादी अनुसूचित जाति और जनजाति वर्गो की है। इनमें से अधिकांश परिवार रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर जाते थे, मगर इस बार वे ऐसा नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें खेती के लिए पानी मिल गया था।

भगवान दास आदिवासी ने कहा कि वह पांच साल बाद अपने गांव लौटे तो उसे अपनी तीन एकड़ जमीन पर खेती कर फसल पैदा करने के लिए पानी मिल गया उन्होंने मेहनत करके जमीन पर लगभग 25 क्विंटल गेहूं उगाया। भगवान दास बताते हैं कि लगभग ढाई दशक पहले वीला बांध की नहर से गांव में पानी आता था, कुछ समय बाद नहर में पानी आना बंद हो गया। नतीजा यह हुआ कि पानी की कमी के चलते खेती बंद करनी पड़ गई और मजदूरी के लिए पलायन करना पड़ा। हालांकि पलायन उन्हें कभी रास नहीं आया और वह यही चाहते रहे कि गांव में या तो रोजगार का साधन मिल जाए या खेती के लिए पानी, इस बार पानी मिला, तो खेती की, फलस उगाए लिहाजा अब वह पलायन नहीं करेंगे।

गांव के हज्जू आदिवासी का कहना है कि यहां से हर वर्ष लगभग 30 से 35 परिवार रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर जाते थे। ये वे परिवार हैं, जिनके पास खेती की जमीन है, मगर पानी के अभाव में वे खेती नहीं कर पाते थे। हज्जू पिछले वर्षो में पानी के लिए किए गए प्रयासों का हवाला देते हुए कहते हैं कि यहां वर्ष 2011 में पानी रोकने की कोशिशें शुरू हुई। पानी पंचायत बनी, फिर एकीकृत पानी प्रबंधन परियोजना के अंतर्गत 2014 में कर्रान स्थित छोटे तालाब के करीब में चेकडैम बनाया गया।

चेकडैम के बन जाने से बीते वर्ष बारिश का पानी रोका गया। इसका लाभ नजर आया। जलस्रोतों का जलस्तर बढ़ा और तालाब से सिंचाई के लिए पानी मिला। पानी पंचायत के अध्यक्ष बाल किशन यादव का कहना है कि गांव वालों की कोशिशों का नतीजा यह रहा कि लगभग 50 किसानों की कभी असिंचित रहने वाली 110 एकड़ भूमि को सिंचाई के लिए पानी मिल गया और गेहूं की भरपूर पैदावार हुई। वहीं जलस्रोतों से अभी भी पीने का पानी मिल रहा है।

हनमुंत यादव की मानें तो इस गांव से इस बार पलायन नहीं होगा, जो परिवार रोजी रोटी की तलाश में गांव से बाहर जाते थे, उन्हें ऐसा नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि बंजर पड़ी रहने वाली जमीन ने इस बार उनकी जरूरत पूरी कर दी है। वास्तव में गांव के लोग भी नहीं चाहते कि वे रोजी-रोटी के लिए गांव से बाहर जाएं। राज्य की अपर मुख्य सचिव (एडीशनल चीफ सेक्रेटरी) अरुणा शर्मा का कहना है कि बुंदेलखंड क्षेत्र को लेकर सरकार की ओर से कोशिश इस बात की हो रही है कि किसानों को सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी मिले, साथ ही जरूरतमंदों को रोजगार मिले।

इसी का नतीजा है कि बुंदेलखंड के बड़े हिस्से में पानी रोकने के प्रयासों से सकारात्मक बदलाव आया है। बुंदेलखंड में खेती के लिए जल संरक्षण को लेकर गांव वालों में आ रही जागृति एक बड़े बदलाव का संकेत है। इन लोगों को अगर सरकार का साथ मिल जाए तो क्षेत्र से पलायन के कलंक को मिटाया जा सकता है।

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