बाढ़ से बचने का सटिक उपाय-नदी जोड़ो योजना
बाढ़ से बचने का सटिक उपाय-नदी जोड़ो योजना
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भारत वह देश है जहां नदी को मां की उपमा दी जाती है, जी हां, मां। कई ऐसी सभ्यताऐं हैं जो नदी की गोद में ही पल्लवित हुई हैं और इन सभ्यताओं को नदियों के नाम से ही जाना गया। भारत के भू भाग पर निवास करने वाले लोगों के गोत्र तक इन नदियों के नाम से जाने गए हैं। हमारी नदियां हमारी पहचान हैं लेकिन आज हम इन नदियों के अस्तित्व को खुद ही समाप्त कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे प्रदूषण रूपी दानव हमारी नदियों को लील रहा है। हमारी नदी सभ्यताओं में विशेषतौर पर सभी उत्सव इन नदियों के किनारे ही मनाए जाते हैं। इन उत्सवों से ही सभी आर्थिक क्रिया-कलाप जुड़ते हैं और लोगों को अर्थ प्राप्त होता है। कई बार इन नदियों से वैश्विक स्तर पर भी धन की प्राप्ति होती है। जैसे कोलकाता में बहने वाली गंगा नदी हुगली में परिवर्तित हो जाती है, इस नदी से मत्स्य व्यापार और अन्य सामान लाने - ले जाने का काम चलता है। प्रति बारह वर्ष में एक बार सिंहस्थ का आयोजन होता है। इस सिंहस्थ के आयोजन में विदेशी पर्यटक भी मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर तक खींचे चले आते हैं और भारत का अर्थ तंत्र चलता है। क्या आपने सोचा है कि यदि ये नदियां न हों तो आखिर क्या हो।

भारतीयों का सारा जनजीवन इन सदानीरी और बरसाती नदियों पर ही निर्भर है। मगर अब ये नदियां अपने ही अस्तित्व को खोती हुई नज़र आ रही हैं। विश्लेषकों ने नदियों के अस्तित्व को लेकर जो कल्पना की है वह बेहद चिंताजनक है। यदि देश की इन सभी नदियों में प्रदूषण की स्थिति यही रही तो ये नदियां अपना अस्तित्व खो सकती हैं। कल्पना की गई है कि वर्षों बाद लोग गंगा नदी के मैदान या ऐसी ही किसी नदी के क्षेत्र में मैदान पर एकत्रित होकर यह याद करेंगे कि यहां कभी पवित्र नदी बहा करती थी। हालांकि इन नदियों के अस्तित्व को बचाने के लिए कई तरह के उपाय किए जा रहे हैं। हर साल बारिश के दौरान कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहां नदियां उफान पर आ जाती हैं। नदी नाले सभी उफनने लगते हैं और नदियां अपना तटबंध छोड़कर बर्बादी की जलधारा बहाने लगती है।

मगर इसके बाद भी कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं जहां लोग पीने योग्य जल के लिए तरस जाते हैं। धरती में सैकड़ों फीट गहराई में खोदने के बाद भी उन्हें पानी का नामो निशान नहीं मिल पाता। सच ही है भारत में वर्षा का असमान वितरण होता है। बारिश के शुरूआती दौर में बाढ़ की मार तो बारिश बीत जाने के बाद सूखे की मार से देश को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है फिर फसल की बर्बादी और कई तरह की परेशानियां भी सामने रहती हैं। ऐसे में नदियों को नदियों से जोड़ने की बात इन आपदाओं का सामना करने वालों के लिए राहत की कुछ उम्मीद लाती नज़र आती है। जब वर्ष 2002 में देश की नदियों को जोड़ने की बात कही गई तो यह यथार्थ से कोसों दूर नज़र आया। मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने नदियों को जोड़ने की बात को अमृत क्रांति के नाम से बल दिया।

567000 करोड़ रूपए की लागत की इस योजना में देश की नदियों को आपस में जोड़कर सिंचाई और विद्युत आपूर्ति के लिए पर्याप्त जल प्रबंधन करना और बाढ़ समेत अन्य जलीय प्राकृतिक आपदा से देश को निजात दिलवाना था। हालांकि यह योजना सही तरह से लागू नहीं हो पाई लेकिन योजना के तहत कुछ नदियों को जरूर जोड़ दिया गया है। हालांकि अभी भी इस योजना के तहत बहुत काम होना शेष है लेकिन। नदियों को नदियों से जोड़े जाने के बाद देश को कई तरह के लाभ हो सकते हैं। देश में वर्षा के असमान वितरण की स्थिति में सूखा प्रभावित क्षेत्र में पर्याप्त पानी पहुंचाया जा सकता है तो दूसरी ओर विद्युत उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। हालांकि नदियों को नदियों से जोड़ने को लेकर भविष्य में पर्यावरणीय दुष्प्रभाव सामने आने की बात कही जा रही है। साथ ही कहा जा रहा है कि हर नदी की अपनी सभ्यता होता है। नदियां जुड़ जाने के बाद ये सभ्यताऐं समाप्त हो सकती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में जब नदियों को नदियों से नहीं जोड़ा जा रहा है तब तो देश की लगभग हर नदी प्रदूषण का शिकार है।

कई ऐसी नदियां हैं जिनका प्राकृतिक बहाव नदी क्षेत्र में असंगत निर्माण कार्य होने के कारण और व्यापक पैमाने पर प्रदूषण होने के कारण समाप्त हो गया है। ऐसे में इन नदियों को प्रवाहमान बनाने के लिए इन्हें अन्य नदियों से जोड़कर पुर्नजीवित करने के अलावा और कोई विकल्प नज़र नहीं आता। नदियों को आपस में जोड़कर गुजरात की तर्ज पर रिवर काॅरिडोर बनाया जा सकता है जिससे एक बड़ी जलराशि का संरक्षण तो होगा ही वहीं पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। नदी सभ्यता है भारत का जीवन है। ऐसे में इन्हें बचाने के लिए नदियों को जोड़ने का उपाय करना बेहद जरूरी है। जहां तक बात सभ्यताओं के अस्तित्व की है तो आज भी देश में कई ऐसे नदी संगम हैं जहां ये सभी प्राचीन सभ्यताऐं पोषित होती हैं। इन संगमों पर होने वाले आयोजनों से ये और पुष्ट हो जाती हैं।

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