डाॅ. आंबेडकर को मूर्तिशिल्प से निकालने की है जरूरत
डाॅ. आंबेडकर को मूर्तिशिल्प से निकालने की है जरूरत
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देशभर में संविधान निर्मात्री समिति के अध्यक्ष भारत रत्न डाॅ. भीमराव आंबेडकर की 125 वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर राजनीतिक आयोजन हुए। कई जगह डाॅ. आंबेडकर से जुड़ी स्मृतियोें का अनावरण हुआ तो कहीं प्रदर्शनी और स्मारक बनाए जाने की शुरूआत की गई। कुछ राजनेता अपने दल की बढ़ाई और विपक्षियों की आलोचना करते रहे। जिस दीव्य पुरूष ने समाज से छुआछूत का भेद मिटाया था।

जिस व्यक्तित्व ने भारतीय जनमानस को संविधान के तौर पर अधिकार दिए जिसके माध्यम से वह कहीं भी घूमने - फिरने और स्वतंत्रतापूर्वक रोजगार परक कार्य करने की स्वतंत्रता रखने लगा। उस महापुरूष को केवल मूर्तिशिल्पों, संग्रहालयों आदि तक ही सीमित रखा गया। आखिर डाॅ. आंबेडकर के नाम पर अधिक से अधिक शिक्षण संस्थाओं, केंद्रीय विश्वविद्यालयों का नामकरण क्यों नहीं किया गया। 

जिस संविधान की रचना उन्होंने की उसे लेकर किसी ऐसे शोध पीठ की स्थापना क्यों नहीं की गई जो कि संविधान में होने वाले संशोधनों पर गैर राजनीतिक और स्वस्थ्य समीक्षा कर सके। जिस शोध पीठ के माध्यम से संविधान में जिन प्रावधानों पर टकराहट है उसका हल निकाला जा सके। 

जिस तरह से डाॅ. आंबेडकर ने 10 वर्ष के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया था क्या उसकी अकादमिक संस्थान के माध्यम से विवेचना की जा सकती है। विवेचना के माध्यम से जिस तरह का हल निकलता है उससे संविधान की आधुनिक दौर के अनुसार पुर्नरचना की जा सकती है या संविधान में आवश्यकता अनुसार संशोधन किया जा सकता है।

मगर डाॅ. आंबेडकर को बड़े - बड़े मूर्तिशिल्पों, दलित राजनीति तक ही सीमित रखा गया है। जबकि आंबेडकर समग्र मानवजाति के नेता थे। हालांकि उन्होंने पिछड़ों, दलितों और अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए अधिक कार्य किया लेकिन उन्होंने देशवासियों के लिए भी बहुत कार्य किए।

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