कहीं ये वो तो नहीं!
कहीं ये वो तो नहीं!
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संसद का सत्र भारत में किसी प्राथमिक शाला की क्लास से कम नज़र नहीं आता। कोई विवादित मसला सामने आता है और हंगामा होना शुरू हो जाता है। अध्यक्ष की आसंदी को घेर लेना तो आम हो गया है। गनीमत यह रहती है कि सांसद अध्यक्ष की आसंदी के करीब पहुंचकर किसी प्रकार की तोड़फोड़ नहीं करते हैं। जमकर हंगामा और नारेबाजी होने के बाद लगता है जैसे क्लास क्लास टीचर के कंट्रोल से छूट जाती है। क्लास टीचर को फिर छुट्टी ही करनी पड़ती है और संसद के सदन को स्थगित कर दिया जाता है।

फिर संसद लगती है फिर बच्चों की तरह हंगामा होता है। इस तरह के हालात एक बार फिर बनने लगे हैं। दरअसल संसद का बजट सत्र शुरूआती दो दिनों में हंगामाखेज रहा। हालांकि यहां यह आसान रहा कि संसद में कुछ विरोधाभासी मसलों को सामने रखा गया। ये ऐसे मसले थे जिन पर हंगामा होना स्वाभाविक था। इस बार केंद्र सरकार ने समझबूझ के साथ ऐसे मसलों को बजट सत्र के प्रारंभ में ही रख लिया जिससे विपक्ष के विरोध को कम किया जा सके। ऐसे में बजट के मूल प्रावधानों के साथ रेल बजट को प्रस्तुत करने में सरकार के लिए कुछ आसानी हो सकती है।

मगर यह कहना मुश्किल है कि क्या जीएसटी आसानी से पेश हो जाएगा। दरअसल जीएसटी की राह में अभी भी रोड़ा है। सरकार जीएसटी के मसले पर अपने प्रयास कर रही है लेकिन राज्यसभा में उसे बहुमत न होने से मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पहले भी सरकार को हंगामों का सामना करना पड़ा है। कभी काले धन के मसले पर सरकार को काले छाते दिखाए गए तो कभी दलित हत्याकांड को लेकर तो फिर कभी असहिष्णुता के मसले पर सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा।

अब सरकार को फिर से दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के मसले पर विरोध का सामना करना पड़ रहा है यही नहीं जेएनयू में देशविरोधी नारेबाजी में सरकार पर आरोप लग रहे हैं। सदन में हंगामा हो रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर सवाल भी उठाए जा रहे हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में शोर मचाकर अभिव्यक्ति का मजाक भी उड़ाया जा रहा है। आखिर यह सब क्यों किया जा रहा है। संसद का महत्वपूर्ण समय एक बार फिर हंगामे की भेंट चढ़ गया। 

हालांकि जेएनयू में देशविरोधी नारेबाजी एक गंभीर विषय था। मगर इस मामले में जांच करने की बात पहले भी कही गई है और इसे फिर दोहराया गया। अब ऐसे में बजट के प्रावधानों पर चर्चा कर महंगाई को काबू करने का प्रयास किया जाता तो शायद यह आम आदमी के हित की बात होती। मगर हंगामों के इन मसलों से दाल के भाव, आयकर की छूट, किन वस्तुओं पर कर आरोपित किया जाए इन पर बहस नहीं हो पाई। ये मसले गौण होकर रह गए हैं। लगता है इन मसलों के माध्यम से महंगाई पर छद्म पर्दा डालने का प्रयास किया जा रहा है। बहरहाल फौरी तौर पर डाला गया यह पर्दा कितना कारगर होता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा। 

'लव गडकरी'

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