आखिरकार एक बार फिर विभिन्न पार्टियों द्वारा दलितों की मौत पर हंगामा मचाया जा रहा है। देश की राजनीति पर बिहार चुनाव का असर है और इस बीच हरियाणा में दलितों की हत्याओं का मामला गर्मा गया है। जिसके चलते दलित नेता इसे वोट बैंक बना रहे हैं दूसरी ओर सत्तारूढ़ पार्टियां भी इन मामलों में दलितों के प्रति सहानुभूति दिखाकर अपना ट्रंप कार्ड खेल रही है। मगर उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का यह कहना सही लगता है कि दलित के मसले पर केवल राजनीति ही हो रही है। मगर वे स्वंय भी इसी राजनीति का एक हिस्सा नज़र आती हैं।
जब दलित नेता मायावती को अपनी सरकार उत्तरप्रदेश में हिलती नज़र आई तो उन्होंने सवर्णों को साधने के लिए तिलक, तराजू और तलवार का नारा दिया। दलितों के उत्थान के नाम पर उन्होंने स्वयं ही अपना पुतला बनवाकर खुद को दलित नेता घोषित कर दिया लेकिन खाप पंचायतों के अमानवीय फैसले न तो वे बदल पाई हैं और न ही कांग्रेस और भाजपा की सरकारें। ऐसे में आरएसएस के सरसंघ चालक डाॅ. मोहन भागवत की बात कहीं - कहीं सच साबित होती लगती है कि आरक्षण के प्रावधान की नए सिरे से समीक्षा की जरूरत है।
दरअसल आरक्षण प्रावधान के बाद भी आज दलितों को समाज की दरिंदगी का सामना करना पड़ रहा है। आधी रात को किसी दलित परिवार को जिंदा जला दिया जाता है। यही नहीं आज भी सुदूर के गांवों में दलित दबंग के कुंऐ से पानी तक नहीं भर सकता। जातिवाद का दंश आज भी भारत के गांवों नगरों ओर हमारी सभ्यताओं में मौजूद है जिसे निकालना बेहद जरूरी है।
हम जातिवाद को दूर करने के लिए अंर्तजातीय विवाहों की बात तो करते हैं लेकिन समाज में फरमान जारी कर दिया जाता है कि गुरूद्वारे में अन्य धर्म के युवक - युवति के आने पर उन्हें विवाह न करने दिया जाए। आखिर मैट्रो के ए - क्लास श्रेणी का सफर करने के बाद भी हमारी मानसिकता आज भी पुरातनपंथी है।
'लव गडकरी'