केंद्रीय मंत्री पर घोटाले का आरोप लगाकर बुरे फंसे सीएम गहलोत, दिल्ली की अदालत से याचिका ख़ारिज
केंद्रीय मंत्री पर घोटाले का आरोप लगाकर बुरे फंसे सीएम गहलोत, दिल्ली की अदालत से याचिका ख़ारिज
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नई दिल्ली: बड़े बुजुर्ग हमेशा से कहते हैं कि, इंसान को कुछ भी बोलने से पहले सोचना चाहिए कि वो क्या बोल रहा है। वहीं, किसी पर आरोप लगाने से पहले तो सौ बार सोचना चाहिए कि, आप जो आरोप लगा रहे हैं, क्या आपके पास उसके प्रमाण हैं ? अपने आरोप को सत्य साबित करने के लिए कोई तथ्य हैं ? यदि नहीं, तो फिर आरोप नहीं लगाने चाहिए। लेकिन, राजनीति तो पूरी तरह आरोप-प्रत्यारोप पर ही चलती है। लेकिन, मनगढंत और बेबुनियाद आरोप लगाकर कई बार नेता फंस भी जाते हैं, जैसे अभी राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत फंसे हैं। दरअसल, सीएम गहलोत के खिलाफ केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने आपराधिक मानहानि का मामला दाखिल कर रखा है। जिसकी सुनवाई कर रही एक अदालत ने इस मामले में सीएम गहलोत को बरी करने की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया है। 

बता दें कि, केंद्रीय मंत्री शेखावत पर सीएम गहलोत ने संजीवनी घोटाले के आरोप लगाए थे। जिसके बाद शेखावत ने गहलोत को अपने आरोप साबित करने की चुनौती देते हुए कोर्ट में घसीट लिया और आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। कोर्ट ने पहले इस मामले में गहलोत को समन जारी किया था। लेकिन, सीएम गहलोत ने इस आधार पर अदालत में खुद को बरी करने की याचिका दायर की थी कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 256 (शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति या मृत्यु) के तहत कानून यह वारंट करता है कि किसी भी तारीख पर प्रतिवादी की अनुपस्थिति में, उचित कारण, जिसे अदालत ने शिकायतकर्ता के छूट आवेदन पर आदेश के रूप में स्वीकार किया है, आरोपी (गहलोत) को शिकायत मामले में बरी कर दिया जाना चाहिए।

हालाँकि, अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (ACMM) हरजीत सिंह जसपाल ने गहलोत द्वारा किए गए अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। जज के इनकार करने का कारण यह था कि एक मजिस्ट्रेट या एक शिकायत मामले को संभालने वाली आपराधिक अदालत को मामले की योग्यताओं की पूरी तरह से जांच किए बिना आरोपी को जल्दबाजी में बरी नहीं करना चाहिए। जज ने कहा कि, 'इस तरह के तकनीकी निपटान से केवल न्याय का गर्भपात होता है। ACMM जसपाल ने आदेश में कहा कि, माननीय उच्च न्यायालयों द्वारा बार-बार दबाव डाला जाता है कि वादी कानूनी अदालतों से तथ्यों के आधार पर विवादों का निपटारा करने की मांग करते हैं, न कि केवल तकनीकी आधार पर निपटान की मांग करते हैं।

कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 256 का उद्देश्य किसी परेशान करने वाले शिकायतकर्ता के हाथों मुकदमे को दुर्भावनापूर्ण तरीके से लंबा खींचने के खिलाफ आरोपी के हितों की रक्षा करना है और इसका उद्देश्य अदालत में शिकायतकर्ता की उपस्थिति सुनिश्चित करना है। शिकायत की कार्यवाही में, ऐसे अवसरों पर जहां मामले को आगे बढ़ाने के लिए शिकायतकर्ता की उपस्थिति आवश्यक है। कोर्ट ने कहा कि, 'यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि सीआरपीसी की धारा 256 द्वारा प्रदान किए गए विवेक का प्रयोग केवल उन स्थितियों में किया जा सकता है जहां अदालत का मानना ​​है कि शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति जानबूझकर की गई है और लगातार मुकदमे के कारण आरोपी की पीड़ा को बढ़ाया जा रहा है। लेकिन मौजूदा मामले में ऐसा प्रतीत नहीं होता है।'

कोर्ट ने आगे कहा कि शिकायतकर्ता (शेखावत) का आचरण बहुत महत्वपूर्ण है और केवल दो तारीखों पर अनुपस्थिति, और वह भी तब जब शिकायतकर्ता का प्रतिनिधित्व उसके वकीलों द्वारा किया गया था और जब शिकायतकर्ता की उपस्थिति उस दिन की कार्यवाही के लिए आवश्यक नहीं थी, तो ऐसा नहीं किया जा सकता। इसे अभियुक्त को बरी करने के लिए सीआरपीसी की धारा 256 के तहत विवेक का प्रयोग करने का उचित आधार कहा जा सकता है। 

कोर्ट में जहाँ, सीएम गहलोत का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील मोहित माथुर ने 7 और 21 अगस्त को शिकायतकर्ता शेखावत की अनुपस्थिति के कारण गहलोत को बरी करने की मांग की, वहीं शेखावत का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील विकास पाहवा ने तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 256 का चरण नोटिस तैयार होने के बाद ही शुरू होता है। और पहले नहीं और चूंकि इस मामले में अभी तक कोई नोटिस तैयार नहीं किया गया है, इसलिए सीआरपीसी की धारा 256 को लागू करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। माथुर ने आगे तर्क दिया कि 'सुनवाई' शब्द हर कार्यवाही और हर तारीख को संदर्भित करता है जहां मामला अदालत के समक्ष सूचीबद्ध होता है और शिकायतकर्ता केवल इसलिए अनुपस्थिति या छूट की मांग नहीं कर सकता क्योंकि नोटिस अभी तक तैयार नहीं किया गया है।

हालाँकि, अदालत ने, सीएम गहलोत के वकील माथुर के तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि मामला उक्त तारीखों पर दस्तावेजों की आपूर्ति और जांच के लिए सूचीबद्ध किया गया था और यह स्पष्ट रूप से शिकायतकर्ता के लिए सबूत पेश करने का अवसर नहीं था। अदालत ने कहा कि उक्त दोनों तारीखों पर शिकायतकर्ता के वकील मौजूद थे और इसलिए, यह कहा जा सकता है कि मामले को आगे बढ़ाने के लिए उक्त तारीखों पर शिकायतकर्ता की व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक नहीं थी।

बता दें कि, इस तरह के भ्रष्टाचार के आरोप एक बार आम आदमी पार्टी (AAP) सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने भी नितिन गडकरी और अरुण जेटली पर लगाए थे। हालाँकि, जेटली और गडकरी दोनों ने कोर्ट में केजरीवाल को अपने आरोप साबित करने की चुनौती दे दी। केजरीवाल के पास अपने आरोप साबित करने के लिए कुछ था ही नहीं, तो उन्होंने लिखित में गडकरी और जेटली दोनों से माफ़ी मांग ली। हालाँकि, इस तरह के निराधार आरोपों से जनता भ्रमित होती है, जनता चाहती है भ्रष्टाचार मुक्त शासन, किन्तु इस तरह के हवा-हवाई आरोप केवल उसे गुमराह ही करते हैं। यदि कोई तथ्य है, कोई नेता भ्रष्टाचारी है, तो बाकायदा उसके खिलाफ अदालत में जाकर मुकदमा करना चाहिए, ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो, तथा जनता को भी अपना नेता चुनने में ग़लतफ़हमी न हो। 

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