अंग्रेज़ व मुस्लिम शासकों के अलावा भारतीयों ने ढोई है 3 और सामानांतर गुलामियां
अंग्रेज़ व मुस्लिम शासकों के अलावा भारतीयों ने ढोई है 3 और सामानांतर गुलामियां
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भारत में गुलामी का इतिहास बहुत लम्बा रहा है | मुस्लिम व अंग्रेज शासनकाल को मिलाकर (ईस्वी सन 1211 से शुरू होकर 1947) तक 700 से अधिक वर्षों तक के समय को ही गुलामी का समय माना जाता है| कई इतिहासकार मुस्लिम शासकों के समय को गुलामी का काल नहीं मानते है | क्योंकि, उनका तर्क है कि मुस्लिम शासक तो यहाँ बसकर यहीं के हो गए थे और यहाँ से राजस्व लेकर यही खर्च करते थे, इसलिए उन्हें विदेशी शासक नहीं माना जा सकता है | खैर, यह एक अलग विवाद का विषय है | फिर भी इस विवाद का एक प्रतितर्क बहुत महत्वपूर्ण और यहाँ भी काम का है | वह यह है कि "गुलामी केवल विदेशियों की ही नहीं होती स्वदेशियों की भी अन्य स्वदेशियों पर गुलामी हो सकती है" |

अब यदि इसी तार्किक और वाजिब बात को ध्यान में रखकर हम खुले दिल-दिमाग से अपने इतिहास को देखें, तो हमें गुलामी के सन्दर्भ में हमारे इतिहास की एक अलग ही तस्वीर नजर आएगी | यदि हम भारत के आम लोगों या जन-समुदाय को फोकस में रखकर इस बात को समझें और पूरे देश की राजनैतिक गुलामी को ही बड़ी गुलामी मानकर न बैठें, तो इस बात को समझ पाएंगे | भारत के आम लोगों ने तीन और भी तरह की गुलामी को सैंकड़ो ही नहीं हजारों साल तक ढोया है; कुछ अंशों में तो इन गुलामियों के अवशेष आज भी कायम हैं और कई मौकों पर साफ़ देखे जा सकते है | ये गुलामियां कैसे पनपी इसे समझने के लिए थोड़ा और पीछे की पृष्ठभूमि को देखना होगा | भारत में सामंतवादी व्यस्था का अर्थात राजा-महाराजा व क्षत्रपों का इतिहास रामायण-महाभारत काल के भी पहले ही शुरू हो गया था | यह वंशानुगत व्यवस्था होती थी और तलवार व युद्ध-कौशल के बल पर कायम की जाती थी | किसी का भी राजा, उसका क्षत्रप या दरबारी बनना, पंडित-पुरोहित वर्ग द्वारा ईश्वर या देवी-देवता की कृपा या भाग्य का खेल निरूपित कर दिया जाता था | कर (लगान आदि) वसूल करने सहित राजा के अधिकार तो बहुत होते थे, लेकिन प्रजा के प्रति कर्तव्यों/ जिम्मेदारियों को नहीं निभाएं तो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था | कहने को तो किताबी रूप से कर्तव्य भी बताये गये हैं, लेकिन उन्हें करना बंधनकारी नहीं था |

राजा का सबसे बड़ा काम बस पंडित-पुरोहितों द्वारा बताये अनुसार देवी-देवताओं को खुश करना था | इसके अलावा ज्यादातर राजा प्रायः आखेट या शिकार करने, चोपड़ जैसे खेल खेलने, नृत्य-संगीत आदि देखने तथा रानियों व दसियों क़े साथ आमोद-प्रमोद करने में ही अपना समय बिताते थे | जो राजा पंडित-पुरोहित वर्ग को खुश रखता था, उन्हें दान-जागीर आदि बांटता था, उनके लिये मंदिर, धर्मशाला, आश्रम आदि बनवा देता था; उसे यह वर्ग बड़ा दानी-धर्मी और श्रेष्ठ राजा बताकर वाह-वाही दिला देता था | जो राजा थोड़ा महत्वकांक्षी होता वह अन्य छोटे राजाओं को युद्ध में हराकर अपने प्रभाव-क्षेत्र को बढ़ा लेता और प्रतापी, पराक्रमी, छत्रपति आदि कहला जाता | शासक के वास्तविक कर्त्तव्य या जिम्मेदारियां जो आज माने जाते है, अर्थात जनकल्याण, शिक्षा, चिकित्सा, आपदा-प्रबंधन, सड़कों जैसी अधो-संरचना आदि का निर्माण आदि की कोई खास चिंता इन राजाओं को कभी नहीं रही |

देश को विकसित करने, शिक्षित करने और सशक्त बनाने की कोई सोच ही नहीं रही | अशोक, कनिष्क, विक्रमादित्य आदि जैसे किसी-किसी राजा ने ही थोड़ा अपवाद पेश किया था; लेकिन लगभग सभी राजाओं की सोच में देश को सशक्त बनाने का मतलब अपनी सेना को सशक्त बनाना होता था, वह भी दकियानूसी तरीकों से | हजारों साल के इस सामंती युग में एक महारोग खूब फला-फूला और हमारे लोगों की रग-रग में समा गया, वह है जातिवाद | ब्राह्मण-पुरोहित वर्ग ने इसे ईश्वर की बनाई व्यवस्था की तरह पेश किया और सम्पूर्ण समाज से मनवा लिया कि यही श्रेष्ठ व्यवस्था है | जब इसमें उंच-नीच और छुआ-छूत के निराधार व अन्यायपूर्ण कायदे डाले गये तो सबने उन्हें भी सर-माथे ले लिया; किसीको यह नहीं लगा कि ये अमानवीय है, अन्याय है और समाज को खंड-खंड कर देना है | आज भी बहुत लोग ऐसे है, जो इस व्यवस्था को अच्छी मानते हैं और इसके कमजोर पड़ने को कलियुग का बुरा प्रभाव मानते हैं | जबकि सच्चाई यह है कि यह जातिवाद ही हमारे देश की सबसे बड़ी कमजोरी रही | इसी कमजोरी या बीमारी के कारण हममें फुट रही, बहुत बड़ा वर्ग शिक्षा से व सेनाओं में शामिल होने से भी दूर रहा, जिससे हम सात सौ साल विदेशियों के गुलाम रहे, गरीब रहे, पिछड़े रहे और अधिकांश मानव-विकास के मापदंडों की वर्ल्ड-रैंकिंग्स में हम आज भी नीचे के स्थानों पर ही आते हैं |

सामंती व्यवस्था और जातिवाद की इस घातक जोड़ी ने ही ऐसे समाज का निर्माण किया जिसमें बहुसंख्यक आम लोगों पर अल्पसंख्यक खास लोगों का जबर्दस्त रौब था | आम लोग उन खास लोगों के फैसलों या आदेशों को (जिन्हें आम हिन्दुस्तानी की भाषा में 'हुकुम' कहा जाता है) मानने के लिए मजबूर थे | इन खास लोगों में सबसे पहले तो आते है परंपरागत राज-घरानों के लोग और उनसे जुड़े हुए खास दरबारी व पुरोहित | इन राज-घरानों ने पहले मुस्लिम शासकों की फिर अंग्रेजों की अधीनता तो मान ली थी | मगर अंग्रेज़ व मुस्लिम शासकों ने इन राजाओं या नवाबों को सत्ता से पूरी तरह बेदखल नहीं किया था | इनकी शान-शौकत व आम-लोगों के बीच रुतबा बना रहने दिया था | इसलिए ये लोग महलों व जागीरों का उपयोग तो करते ही थे, लोगों के बीच अपनी खोखली सत्ता का भ्रम भी बनाये रखते थे | आम लोगों को तो इनकी असल रजनीतिक स्थिति अथवा दिल्ली के सुल्तान या बाद में कंपनी बहादुर (अंग्रेजों) के साथ इनके संबंधों की स्पष्ट जानकारी ही नहीं थी | दूसरे स्तर पर वे खास लोग आते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र के, कस्बों के या बड़े गांवों के परंपरागत सामंत थे | ये लोग जागीरदार, दरबार, हुकुम, चौधरी आदि कहलाते थे |

वे पहले राजाओं के प्रतिनिधि की तरह शासन करते थे फिर सुल्तानों के और फिर अंग्रेजों के भी प्रतिनिधि या क्षेत्रीय सहायक बन गए | इन्हें दिल्ली के केंद्रीय शासन में कौन बैठा है, इससे कोई खास मतलब नहीं रहता था | वे तो अपने-अपने क्षेत्रों के गांवों की जनता पर अपनी हुकूमत बनाये रखते थे | तीसरे प्रकार के वे खास लोग हैं जो किसी क्षेत्र-विशेष में खास जाति/ संप्रदाय के परंपरागत रूप से प्रमुख रहे या जिन्हें किसी समुदाय के खास मठ-मंदिर ने अपना प्रतिनिधि बनाकर जाति-प्रमुख या मुखिया मनवा दिया | आजकल तो विभिन्न जाति समुदायों में सामाजिक संस्थाए बनी है और उनमें चुनाव होने लगे हैं | लेकिन पहले या तो वे परंपरागत होते थे या फिर किसी खास मठ-मंदिर, गुरु-महाराज आदि के समर्थन से बनते थे | ये खास जाति-संप्रदाय के कथित प्रमुख लोग जो निर्णय लेते थे, वह भी उस जाति के आम लोगों को मानने होते थे |

बहुत जगह इस प्रकार की सत्ता किसी खास परिवार के पास नहीं होती थी, बल्कि कई खास परिवारों की सामूहिक होती थी | जैसे कि पंजाब-हरियाणा क्षेत्रों में खाप-पंचायतें बनी हुई है और वे आज भी अपने समुदायों पर हुकुम चलाती है या अपने फैसले लादती है | सच तो यह है कि गांवों के भौगोलिक आधारों पर बनी हुई पंचायतों से ज्यादा इन जाति-समुदाय आधारित पंचायतों का हुकुम चलता था, अब भी बहुत हद तक चलता है | देखा जाये तो जमीनी स्तर पर तो दिल्ली के सुल्तानों या अंग्रेजों से भी अधिक रुतबा व असर इन तीन प्रकार के खास लोगों का था | आम लोगों को दिल्ली के शासकों के हुकुम या ऑर्डर्स का सामना तो कम ही करना पड़ता था पर इन खास लोगों के हुकुम उन्हें कदम-कदम पर मानने होते थे |

इन खास लोगों के फैसले या हुकुम बहुत बार अच्छे भी होते थे | लेकिन ज्यादातर वे जातिवाद को मजबूत करने वाले, औरतों को दोयम दर्जे का बनाये रखने वाले और रूढ़िवाद, अन्धविश्वास आदि के पोषक होते थे | यह हमारे इतिहास की ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिसे कहीं इतिहास की किताबों में नहीं लिखा गया है | परोक्ष रूप से इसके संकेत जरूर मिलते हैं | इतिहास से इतर या पुराने समय पर आधारित साहित्य व लोक-साहित्य में इसके पक्के प्रमाण मिलते हैं | सबसे स्पष्ट प्रमाण तो यह है कि, यदि हम आज के ही समाज की मान्यताओं, परम्पराओं व सा संस्कृति का तार्किक विश्लेषण करें तो भी इस सच्चाई को जाना जा सकता है | ऐसा पूरा विश्लेषण, प्रमाण व उदाहरणों सहित यदि मैं यहाँ रखूँगा तो यह लेख एक पूरा शोध-प्रबंध बन जायेगा | इस लेख की शब्द-सीमा का ध्यान रखते हुए तो अब मेरे पास यह स्पष्ट करने की भी गुंजाईश नहीं बची है कि इन तीन प्रकार के लोगों के रौब या प्रभुत्व को मैं 'आम लोगों पर खास लोगों की गुलामी' क्यों कहता हूँ? यह मुद्दा मैं ऐसे ही छोड़ रहा हूँ, क्योंकि मुझे उम्मीद है कि अधिकांश सुधि पाठक इस बात के तार्किक आधारों को भलेही न समझे या न स्वीकार करें, लेकिन मेरे अभिप्राय व उद्देश्य को समझ लेंगे तथा स्वीकार भी करेंगे |

हरिप्रकाश 'विसंत'

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