बाबा साहेब के बहाने संसद में हुई सौहार्द की बहस
बाबा साहेब के बहाने संसद में हुई सौहार्द की बहस
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आमतौर पर भारत रत्न बाबा साहेब डाॅ. भीमराव आंबेडकर  को उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर याद किया जाता है। ऐसे में उनके स्मारकों, और मूर्तिशिल्पों के इर्द गिर्द कुछ पार्टियों के और खुद को दलित नेता कहने वाले लोग एकत्रित हो जाते हैं। मगर आज संसद में पहली बार बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के योगदान को लेकर चर्चा हुई। इस दौरान बाबा साहेब के योगदान को रेखांकित करते हुए कई मसलों पर जवाब दिए गए। कुछ उलझे - उलझे से जवाब के बीच संसद में हल्की विवादित बहस होती रही।

कुछ हंगामा भी हुआ लेकिन यह हंगामा आमतौर पर होने वाले हंगामों से अलग रहा है। हालांकि बहस के दौरान सत्ता पक्ष ओर विपक्ष दोनों ने ही अपने - अपने दावे किए और दोनों दलों ने एक दूसरे पर राजनीतिक कटाक्ष किए। हालांकि यह सवाल रह रहकर उठ रहे हैं कि भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को अचानक बाबा साहेब का ख्याल क्यों आया। इस सवाल के जवाब में यह उत्तर तो समझा जा सकता है कि आगामी समय में होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में पार्टी दलित वोट बैंक को कुछ साधना चाहती है।

जिसकी तैयारी पार्टी द्वारा अभी से की जा रही है। हालांकि बाबा साहेब को याद कर संविधान दिवस मनाए जाने के पीछे सरकार की और भी कुछ मंशा रही होगी। मगर जो भी हो बाबा साहेब लोगों के बीच याद तो किए जा रहे हैं। सरकार द्वारा लंदन स्थितउनके आवास को संग्रहालय में बदलना एक अच्छी पहल है मगर संविधान दिवस मनाकर एक नई परिपाटी प्रारंभ करना कहीं मोदी का कोई नया राजनीतिक कदम तो नहीं।

जो भी हो इस बहाने लोग 26/11 के दर्द को कुछ भूल तो पाऐंगे। आतंक और दर्द से कराहती जिंदगियों का मुश्किल भरा फलसफा कुछ कम परेशानी देगा। मगर संविधान दिवस मनाने के साथ ही ऐसा लगता है जैसे भाजपा कांग्रेसमुक्त भारत का सपना देखने के साथ ही कांग्रेसी मुक्त दिवस मनाने का प्रयास भी करने लगी है। 2 अक्टूबर को स्वच्छता के मिशन से जोड़कर इस दिवस को गांधीगिरी बनाम भाजपाईकरण से जोड़ा गया।

हालांकि नमो की यह पहल लोगों को जागरूक करने के लिए बेहद चर्चित रही मगर इससे कांग्रेसियों में कुछ बौखलाहट का माहौल रहा। संविधान दिवस के इस दिवस पर भी देश छोड़ने और देश में रहने को लेकर संसद में बहस चलती रही। फिर सेक्युलरिज़्म का मसला उठता रहा। आरक्षण के मसले पर नेताओं ने चर्चा तो की लेकिन अपने पुरातन हथियार की धार को कम करना उन्हें शायद आज भी नागवार ही गुजर रहा था। सभी दल इसमें बदलाव की बात को छूने से बचते रहे। आखिर आरक्षण का आधार तो 10 वर्ष के लिए ही दिया गया था।

देश के हालात बदलने के साथ इसे बदलने पर चर्चा करना किसी को भी पसंद नहीं आया शायद सभी के राजनीतिक हित इस मसले पर बदलाव से प्रभावित होते। ऐसे में बोतल में गया जिन्न फिर बाहर कौन निकाले। बहरहाल असहिष्णुता की आग से घिरी राजनीति का एक दिन अच्छी बहस के नाम रहा और संसद की कार्रवाई सार्थक साबित हुई।       

'लव गडकरी'

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